शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016

= विन्दु (२)७५ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-२)"*
*लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ७५ =*
*= वाजींद को सचेत करना =*
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एक दिन वाजींद आमेर नरेश राजा मानसिंह के बाग में गये थे । वहां उन्होंने एक बहुत बड़ा गैंदे का फूल देखा और यह स्वामी दादूजी को दिखाने योग्य है, यह समझकर दादूजी को दिखाने के लिये उस पुष्प को वाजींद तोड़ लाये फिर दादू आश्रम में गये । दादूजी का दर्शन करके दंडवत सत्यराम किया फिर उस पुष्प को दिखाते हुये बोले - स्वामिन् ! देखिये यह पुष्प कितना सुन्दर है ।
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तब दादूजी ने कहा - हे वाजींद अभी तक तुम इस मायिक पदार्थ की सुन्दरता पर ही मोहित हो रहे हो क्या ? इसके बनाने वाले ईश्वर की सुन्दरता कितनी अनन्त है उसे नहीं देख सकते क्या ? उस परम सुन्दर सर्व प्रकार की सुन्दरता के परम कारण प्रभु की सुन्दरता देखो, उसको देखने से सबही सुन्दरता उस में आजाती है । फिर कहा -
"दादू मेरे ह्रदय हरि बसे, दूजा नांहीं और ।
कहो कहाँ धौं राखिये, नहीं आन को ठौर ॥
दादू नारायण नैना बसे, मनहीं मोहनराय ।
हिरदा माँहीं हरि बसे, आतम एक समाय ॥
दादू एक हमारे उर बसे, दूजा मेल्या दूर ।
दूजा देखत जायगा, एक रहा भरपूर ॥
मन चित मनसा पलक में, सांई दूर न होय ।
निष्कामी निरखे सदा, दादू जीवन सोय ॥"
अर्थात् हृदय में तो दूसरे की सुन्दरता देखने का विचार उठता ही नहीं है । सब में एक प्रभु की सुन्दरता है । वही सत्य, शिव और सुन्दर है । हम तो निरंतर सब में उसी को देखते हैं, तुम भी उसी को देखो । कहा भी है -
"गुरु दादू आमेर में, तहां गयो वाजींद ।
फूल सरायो देखि के, यह सब मायानन्द ॥"
(क्रमशः)

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