रविवार, 31 दिसंबर 2023

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*ज्यों जल विछुरे मीना, तलफ तलफ जिय दीन्हा,*
*यों हरि हम सौं कीन्हा ॥*
*चातक मरै पियासा, निशदिन रहै उदासा,*
*जीवै किहि बेसासा ॥*
*जल बिन कमल कुम्हलावै, प्यासा नीर न पावै,*
*क्यों कर तृषा बुझावै ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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*जल कौ सनेही मीन विछुरत तजै प्राण,*
*मणि बिन अहि जैसे जीवत न लहिये।*
*स्वाति बूँद के सनेही प्रगट जगत माँहि,*
*एक सीप दूसरी सु चातक ऊ कहिये।*
*रवि कौ सनेही पुनि कमल सरोवर मैं,*
*शशि कौ सनेही ऊ चकोर जैसे रहिये।*
*तैसें ही सुन्दर एक प्रभु सौं सनेह जोरि,*
*और कुछ देखि काहू ओर नहिं बहिये ॥८॥*
*(सवैया ग्रंथ - पतिव्रत उपासना को अंग)*
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*जल को सनेही मीन बिछरत तजै प्राण,*
*मणि बिन अहि जैसे जीवत न लहिये।*
और जैसे मछली तड़प जाती है जल के बाहर और प्राण छोड़ देती है, ऐसे ही तुम परमात्मा को चाहोगे तो पा सकोगे। इससे कम में काम न चलेगा।
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*मणि बिन अहि जैसे जीवत न लहिये।*
और जैसे सांप की मणि खो जाए तो वह जीना नहीं चाहता, ऐसे ही बिना परमात्मा के तुम जीना भी न चाहो ऐसी जब तुम्हारी आकांक्षा हो, ऐसी बलवती जब तुम्हारी अभीप्सा हो, तभी तुम मिट पाओगे और परमात्मा तुम्हारे भीतर प्रविष्ट होगा।
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*स्वाति बूंद के सनेही प्रकट जगत मांहिं,*
*एक सीप दूसरी सु चातक ऊ कहिये।*
चातक बनो ! क्योंकि चातक ही जान सकता है कि जल क्या है और स्वाति की बूंद क्या है। एक सीप से दूसरी सीप में भेद चातक ही कर पाता है। चातक की अभीप्सा ऐसी है कि वह सार से असार को भेद कर लेता है। तुम जब परमात्मा को प्रगाढ़ता से चाहोगे तो असार तुम्हें अपने आप दिखाई पड़ने लगेगा। और जिसने असार को असार की भांति देख लिया, उसने सार की तरफ आधी यात्रा पूरी कर ली।
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*रवि को सनेही पुनि कंवल सरोवर में,*
और जैसे सूरज का प्यारा, कमल, राह देखता है सूरज की कि कब उगे सूरज और मैं खिलूं; प्रतीक्षा करता है सुबह की कि कब आए सूरज और जगाए ऐसी करो प्रतीक्षा ! रात तुम्हारी भी लंबी है और अंधेरी है। और तुम भी वैसे ही कीचड़ में पड़े हो जैसा कमल पड़ा है। सूरज की प्रतीक्षा करो। पुकारो, आह्व करो ! आएगा सूरज जरूर। निश्चित आता है। जब कमल की प्रार्थना सुन ली जाती है, तुम्हारी न सुनी जाएगी ?
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*शशि की सनेही ऊ चकोर जैसे रहिये।*
और जैसे चांद का प्यारा चकोर चांद को ही देखता रहता है, टकटकी लगाए चांद को ही देखता रहता है- - ऐसे ही तुम इस सारे संसार में कहीं भी रहो, कैसे भी रहो कहीं उठो, बैठो, सोओ, मगर तुम्हारी टकटकी परमात्मा पर लगी रहे। उस परम प्यारे पर लगी रहे। अपलक तुम्हारी आंख उस पर जुड़ी रहे, तो एक दिन जरूर, मिलन होता है।
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यहां कुछ भी अभीप्सा व्यर्थ नहीं जाती।
यहां कोई भी प्यास व्यर्थ नहीं जाती।
यहां प्यास से पहले जल है।
*तैसे ही सुंदर एक प्रभु सौं सनेह जोरि,*
*और कछु देखि काहू ओर नहीं बहिये॥*
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ऐसे उस एक परमात्मा से अपने स्नेह के धागे को जोड़ लो, प्रेम के धागे को जोड़ लो। और किसी दूसरी तरफ मन को मत जाने दो। मन बहुत दौड़ लिया, बहुत भटक लिया। जन्म-जन्म तक यह भटकाव चल लिया। अब सारी ऊर्जा को उस एक की तरफ प्रवाहित करो। 
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उस एक को पुकारो ! श्वास-श्वास में उस एक को समाने दो। हृदय की धड़कन-धड़कन में उस एक को बैठ जाने दो। मिलन होगा, मिलन निश्चित होगा ! मैं उसका गवाह हूं, साक्षी हूं। मिलन होता है--मगर उसी का होता है, जिसकी अभीप्सा पूरी हो ! 
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हुस्न से कब तक परदा करते, इश्क से कब तक परदा होता, प्रेम जगे तो परमात्मा प्रकट होने को राजी है। उसका सौंदर्य बरसने को राजी है मगर तुम झोली तो फैलाओ ! तुम मांगो तो ! जीसस के वचन हैं - मांगो और मिलेगा ! खटखटाओ--और द्वार खुलेंगे !
ओशो (ज्योति से ज्योति जले)

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