*🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷*
*🌷🙏 卐 सत्यराम सा 卐 🙏🌷*
*https://www.facebook.com/DADUVANI*
*दादू गुण तजि निर्गुण बोलिये, तेता बोल अबोल ।*
*गुण गहि आपा बोलिये, तेता कहिये बोल ॥*
=============
*साभार ~ @Subhash Jain*
.
*दादूराम-सत्यराम*
*महात्मा कविवर श्री सुंदरदासजी*
देह तो प्रगट यह ज्यौं की त्यौं ही जानियत,
नैन के झरोखे मांहि झांकत न देखिये ।
नाक के झरौखै मांहि नैक न सुबास लेत,
कांन के झरोखे मांहि सुनत न लेखिये ॥
मुख के झरोखे में वचन न उचार होत,
जीभ हू को खटरस स्वाद व विसेखिये ।
सुन्दर कहत कोन कौन विधि जाने ताहि,
कारो पीरो काहू द्वारा जातौ हूँ न पेखिये ॥७॥
(सवैया ग्रंथ - देहात्म विछोह को अंग)
,
बैठा है पूरा का पूरा परमात्मा तुम्हारे भीतर। पूरा का पूरा ! जो जानते हैं वे यह नहीं कहते कि तुम परमात्मा का अंश हो; जो जानते हैं वे कहते हैं तुम पूरे परमात्मा हो। उसके कहीं अंश होते हैं, कहीं खंड होते हैं ? रात पूर्णिमा का चांद निकलता है। हजारों झीलों में, तालाबों में, सागरों में, नदियों में, पोखरों में उसका प्रतिबिंब बनता है।
.
सब प्रतिबिंब पूरे चांद के प्रतिबिंब होते हैं। कुछ ऐसा थोड़े ही है कि एक झील में बन गया चांद का प्रतिबिंब तो अब दूसरी झील में कैसे बने ? ऐसा बोड़े ही है कि खंड-खंड बनते हैं, कि एक टुकड़ा बन गया इस सागर में, एक टुकड़ा बन गया उस सागर में। सभी प्रतिबिंब पूरे चांद के होते हैं।
.
ऐसे ही तुम पूरे परमात्मा हो, क्योंकि तुम पूरे परमात्मा के प्रतिबिंब हो। परमात्मा एक है, अनंत उसके प्रतिबिंब हैं। देह तो प्रकट यह ज्यों की त्योंही जानियत।.... प्रकट हुआ है तुम्हारे भीतर पूरा का पूरा, जैसा का तैसा। और चाहो तो जैसा का तैसा जान लो। क्षण भर भी गंवाने की बात नहीं है। लेकिन चूक होती है।
.
चूक इसलिए होती है, नैन के झरोखे महिं झांकत न देखिए। तुम उसको नैन के झरोखों से देखना चाहते हो। नैन के झरोखों से तो उसे न देख सकोगे। नैन के झरोखे से तो "पर" देखा जाता है, "स्व" नहीं देखा जाता। "स्व" तो नैन के पीछे बैठा है। क्या तुम सोचते हो अंधे आदमी को आत्मज्ञान नहीं हो सकता ? सच तो यह है अंधे आदमी को आंखवाले से जल्दी आत्म-ज्ञान हो जाता है। इस कारण इस देश ने अंधों को सदा सम्मान दिया है।
.
उन्हें हम कहते हैं : सूरदास। उन्हें बड़े आदर से पुकारते हैं। उनकी बाहर की आंख नहीं है। बहुत संभावना है कि जो ऊर्जा बाहर की आंख से बहती थी वह ऊर्जा अब भीतर की तरफ बह रही होगी। क्योंकि बाहर का तो द्वार नहीं है। अंधे को हमने बड़ा सम्मान दिया है ! सिर्फ एक ही कारण से प्रतीकवत कि ज्ञानी भी अंधे जैसा हो जाता है। बाहर की आंख तो बंद हो जाती है उसकी। उसे बाहर तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता; उसे भीतर दिखाई पड़ने लगता है।
.
हमारी चूक यही है कि हम आंख से उसकी तलाश में निकले हैं, जो आंख के पीछे खड़ा है। हम उसकी तलाश में निकले हैं, जो तलाश कर रहा है। यह तलाश कैसे पूरी होगी ? जिस घोड़े पर सवार हो उसी को खोजने निकले हो ! कभी-कभी ऐसा हो जाता है लोग उसी चश्मे को लगाए होते हैं और उसी चश्मे की तलाश कर रहे होते हैं। और चश्मा तुम्हारे कानों पर चढ़ा है। ठीक वैसी ही भूल है।
.
नैन के झरोखे मांहिं झांकत न देखिए। जैसे कोई खिड़की पर खड़े होकर आकाश को देखता है, आकाश के तारों को देखता है-ऐसे ही तुम आंख के झरोखे के पीछे खड़े हो सारे संसार को देख रहे हो। लेकिन तुम झरोखे के पीछे खड़े हो, तभी तो देख पा रहे हो। देखने वाला कौन है ? दृष्टा को खोजो, और तुम परमात्मा को पा लोगे। दृश्य में उलझे रहो और तुम्हारा संसार का वर्तुल चलता ही रहेगा, चलता ही रहेगा। दृश्य से द्रष्टा में रूपांतरण यही कला है। यही वह कला है जिसको उपनिषद के ऋषि कहते हैं: कलैव ब्रह्म।
.
नाक के झरोखे मांहिं नैकु न सुवास लेत। तुम उसकी सुवास नाक के झरोखे से न ले सकोगे। नाक के झरोखे से तो बाहर की मुवास मिलती है।... कान के झरीखे मांहि सुनत न लेखिए।.... और कान से सुनने चले हो तो नहीं सुन पाओगे उसे। कान से तो जो भी तुम सुनोगे, वह कुछ और होगा। उसे सुनने के लिए तो वाणी काम नहीं आएगी, मौन काम आएगा, चुप्पी काम आएगी।
.
ज्ञानियों ने सदा कहा है, उसे कहा नहीं जा सकता। ज्ञानियों ने दूसरी बात भी कही है कि उसे सुना नहीं जा सकता। न कहा जा सकता। न सुना जा सकता है। कहो तो बात झूठ हो जाती है, सुनो तो बात झूठ हो जाती है। कहे-सुने के पार है। कहे में नहीं आता सुने में नहीं आता है क्योंकि वह कहने वाला है, वह सुनने वाला है- इसलिए पार है। मैं तुमसे कह रहा हूं। जो में कह रहा हूं उसमें वह नहीं है; लेकिन जो कह रहा है, उसमें है।
.
मैं तुमसे कुछ कह रहा हूं। जो तुम सुन रहे हो उसमें वह नहीं है, लेकिन जो सुन रहा है, उसमें वह है। जब कहने वाले और सुनने वाले का मिलन हो जाता है, कही-सुनी बंद हो जाती है और कहने वाले और सुनने वाले का मिलन हो जाता है, तब सत्संग होता है। जब तक कही-सुनी बात ही चलती रहती है, तब तक वार्तालाप, तब तक सत्संग नहीं।सत्संग चुप्पी का संबंध है, मौन का नाता है। मौन का सेतु जब बनता है, तो सत्संग होता है।
.
सद्गुरु के पास जो सर्वाधिक बहुमूल्य क्षण हैं वे शब्दों के नहीं होते, वे निःशब्द के होते हैं। और जो सदगुरु के शब्द शांति से सुनता है, मौन से सुनता है, शब्द तो ऊपर-ऊपर आते हैं और चले जाते हैं, निःशब्द की धार भीतर बहने लगती है। शब्द तो खोल की तरह होते हैं, निःशब्द को तुम तक पहुंचा देते हैं। शब्द तो निमित्त होते हैं। शब्द के निमित्त पर चढ़ कर निःशब्द तुम्हारे पास पहुंच जाता है।
.
सुनते समय, जो कहा जाए उसकी बहुत फिकर न करो; जो कह रहा है उसकी फिकर लो। और जो सुन रहे हो, उसकी बहुत फिकर मत करो; जो सुन रहा है, उसके प्रति जागो।
कान के झरोखे मांहिं सुनत न लेखिए। मुख के झरोखे में वचन न उचार होत, जीभ हू की खटरस स्वाद न विशेखिए।
वह रसरूप है। रसो वै सः। लेकिन जीभ से उसका स्वाद नहीं मिलेगा। उसका रस जीभ से नहीं मिलेगा।
.
वह तो रस लेने वाला है। इस बात को बार-बार सुंदरदास दोहरा रहे हैं, ताकि हर तरफ से यह चोट तुम्हारे भीतर साफ हो जाए कि कहां खोजें ? किस दिशा में तलाश करें ? मुख के झरोखे में वचन न उचार होत, जीभ हू की खटरस स्वाद न विशेखिए।
.
सुंदर कहत कौन विधि जानै ताहि। तब सुंदर कहते हैं फिर किस विधि उसे जानें ? अगर आंख से दिखाई पड़ता तो देख लेते। कान से सुनाई पड़ता तो सुन लेते। हाथ की पकड़ में आता, पकड़ लेते। पैर की यात्रा के बस में होता तो कितने ही दूर होता, पहाड़ों को, समुद्रों को लांघ जाते। अब इसको हम कैसे पहुंचें ? हमारे पास कोई विधि नहीं है। किस विधि इसे जानें ?
.
सब विधियां छोड़ कर वह जाना जाता है। विधि-मात्र के त्याग से जाना जाता है। उसे पाने की कोई विधि नहीं होती। विधि हमेशा पराए पर ले जाती है। निर्विधि, निरुपाय... । तुमने शब्द "निरुपाय" सुना है न ! उसका तुमने एक अर्थ समझा है सिर्फ--असहाय। उसका दूसरा अर्थ है: निर्विधि। निरुपाय, अब कोई उपाय नहीं।
.
जब खोजी जानता है कि उसे पाने का कोई उपाय नहीं, कोई विधि नहीं,... क्योंकि जितनी विधियां हैं वे मेरी पांचों इंद्रियों से जुड़ी हैं। और ये इंद्रियां तो सिर्फ झरोखे हैं और वह रहा इनके पीछे, पूरा का पूरा बैठा है... देह तौ प्रकट महिं ज्यों की त्यौहीं जानियत।... मगर है भीतर...। और ये सारी इंद्रियों की दौड़ बाहर की तरफ है। मिलन कैसे होगा ? अगर इंद्रियों से चलूंगा तो उस तक नहीं पहुंच पाऊंगा। इंद्रियों से चलूंगा तो उससे दूर होता चला जाऊंगा। अतींद्रिय है वह। फिर किस विधि उसे पाएं ?
.
सुन्दर कहत कौन विधि जानै ताहि। जब बड़ी मुश्किल आई, बही पहेली हुई, कि जितनी विधियां थीं उनसे तो कुछ काम होनेवाला नहीं। अब हम करें क्या ? योग, तप कुछ काम न आएंगे। व्रत-उपवास कुछ काम न आएंगे। लेकिन यह बोध कि उसे पाने की कोई विधि नहीं हो सकती, इस बोध में सारी विधियां गिर जाती हैं। खोजी असहाय हो जाता है, निरुपाय हो जाता है, ठहर जाता है, ठिठक जाता है।
.
जाना कहां अब ? सब जाना गलत जाना है। गए कि चूके। अब जाना नहीं है। इस अवस्था में ही पहला संस्पर्श होता है उसका। इसको ही स्थिति-श्रीः कही। जब सारी विधियां छूट गयीं। विधियों का मोह छूट गया। विधियों की संभावना भी नष्ट हो गई। इसलिए ज्ञानी कहते हैं: वह तो सहज पाया जाता है। सहज का अर्थ होता हैः विधि के बिना।
.
साधो, सहज समाधि भली। इसका नाम है सहज समाधि। सहज समाधि कोई विधि नहीं है-सारी विधियों की व्यर्थता का बोध; सारी इंद्रियों की व्यर्थता का बोध। तो अचानक सब ठहर जाता है। आंखें बंद हो जाती हैं, कान बहरे हो जाते हैं, हाथ जड़ हो जाते हैं, पैर की गति अवरुद्ध हो जाती है। कहां जाना? कहीं कुछ जाने का उपाय न रहा। इस निरुपाय दशा में आदमी अचानक पाता है; अपने भीतर हूं मैं।
.
अचानक पाता है कि आ गया अपने घर। बिना कहीं गए आ गया अपने पर। न की कोई यात्रा, न कोई दिशा में खोज की। यह अपूर्व घटना घटती है चमत्कार की तरह। विधियों में आदमी भटक जाता है। विधियों में आदमी गोरखधंधे में पड़ जाता है। निर्विधि होकर अपने घर आ जाता है। क्योंकि परमात्मा हमारा स्वभाव है। उसे पाने के लिए कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। उसे पाने के लिए यह बोध आना चाहिए कि हमारा सब किया बाधा बन जाता है। अक्रिया में पाया जाता है परमात्मा।
.
सुंदर कहत कोऊ कौन विधि जाने ताहि.
कारो पीरो काहू द्वारा जातौ हूँ न पेखिए।
न तो किसी ने उसे देखा है कि काला है कि पीला है, न किसी ने कभी उसे निकलते हुए देखा है देह से। मृत्यु होती है तब भी वह जाता हुआ दिखाई नहीं पड़ता।
.
न कभी किसी ने उसे आते देखा है, न कभी किसी ने जाते देखा। वह तो सदा है, न आता है न जाता है। जब तुम मृत्यु से गुजरते हो तब भी वह कहीं आता-जाता नहीं, सिर्फ देह से उसका संबंध छूट जाता है। जैसे बल्च फूट गया, तो तुम सोचते हो बिजली कहीं चली गई ? बिजली जहां के तहां है, सिर्फ बल्ब से संबंध छूट गया। रोशनी नहीं हो रही अब। न वह आता, न बह जाता। उसका कोई आवागमन नहीं है। इसे पाने के लिए आने-जाने की कोई जरूरत नहीं।
ओशो
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें