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*दादू झूठे तन के कारणै, कीये बहुत विकार ।*
*गृह दारा धन संपदा, पूत कुटुम्ब परिवार ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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*धूलि जैसौ धन जाकै सूलि से संसार सुख,*
*भूलि जैसौ भाग देखै अंत की सी यारी है ।*
*पाप जैसी प्रभुताई सांप जैसौ सनमान,*
*बड़ाई हू बिछुनी सि नागनी सी नारी है ॥*
*अग्नि जैसौ इन्द्रलोक बिघ्न जैसौ बिधिलोक,*
*कीरति कलंक जैसी सिद्धि सी ठगारी है ।*
*बासना न कोऊ बाकी ऐसी मति सदा जाकी,*
*सुन्दर कहत ताहि बंदना हमारी है१ ॥*
(सवैया ग्रंथ - साधु को अंग)
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धूलि जैसो धन जाकें सूलि से संसार-सुख।
और संसार के सुख ऐसे हैं जैसे कोई सूली पर चढ़ा दे। जिसने भीतर का सुख जाना, बाहर के सुख सूली जैसे हो ही जाते हैं। जिसने भीतर का सुख जाना, बाहर के सुख दुख जैसे हो जाते हैं। जिसने भीतर का जीवन जाना, बाहर का जीवन मृत्यु से भी बदतर हो जाता है। और जिसने भीतर की रोशनी जानी, उसे बाहर के सूरज सब अंधेरे हो जाते हैं।
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धूलि जैसो धन जाकें सूलि से संसार सुख
भूलि जैसो भाग देखै अंत की सी यारी है।
और उसे कितना ही बड़ा भाग्य का क्षण आ जाए तो भी वह उसको भूल ही जैसा दिखाई पड़ता है। अब बुद्ध को भाग्य का क्षण था--धन था, राज्य था, पद था, प्रतिष्ठा थी, इकलौते बेटे थे, सुंदर से सुंदर स्त्री थी, सब था--लेकिन भाग्य भूल जैसा लगा। छोड़ कर चले गए।.....
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भूलि जैसी भाग देखै अंत की सी यारी है।..... और उसे इस संसार के सारे संबंध अब टूटे तब टूटे ऐसे मालूम होते हैं। उनका कोई मूल्य नहीं है। आज हैं कल नहीं होंगे। क्षण भर के हैं, क्षण भर बाद नहीं होंगे। अंत की सी यारी है। जैसे कोई मर ही रहा है और उससे कोई आकर दोस्ती का हाथ बढ़ाता है और कहता है, आओ दोस्ती करें !
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अब वह मर ही रहा और वह कहता है अब दोस्ती से भी क्या होगा ! अब दोस्ती में सार भी क्या ? अब ये हाथ उठा कर, और हाथ से हाथ जोड़ने का प्रयोजन भी क्या है ? यहां हम प्रतिक्षण ही मर रहे हैं। यहां सारी दोस्ती अंत की सी यारी है। मगर मन है कि धोखे खाए चला जाता है।
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पाप जैसी प्रभुताई सांप जैसो सनमान।
सुंदरदास कहते हैं : यह सारी प्रभुता, यह पद-प्रतिष्ठा... पाप जैसी प्रभुताई सांप जैसो सनमान! यह सांप को दूध पिलाने जैसा है सनमान का जो खेल है, कब काट लेगा पता नहीं।
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बड़ाई हू बिछनी सी नागिनी सी नारी है।
और ये सारी प्रशंसाएं विच्छुओं जैसी हैं। इन्हें हाथ पर रखो, मगर भरोसा मत करना। और ख्याल रखना, नारी केवल प्रतीक है, क्योंकि सुंदरदास पुरुषों से बोल रहे होंगे। जैसे नारी नागिनी सी है पुरुष के लिए, वैसा ही पुरुष नाग सा है नारी के लिए। उतना जोड़ लेना। नहीं तो पुरुष सोच लेता है कि हम पुरुष, और नारी नागिनी सी ! इस मूढ़ता में मत पड़ना। संत पुरुष कहते रहे कि नारी नरक का द्वार है। और पुरुष बड़ी अकड़ से इस बात को सम्हाल कर रख लेते हैं।
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एक संत मेरे पास आकर ठहरे थे। वे कहने लगे, नारी नरक का द्वार है। तो मैंने कहा, इसमें आप झंझट में पड़ोगे। उन्होंने कहा, कैसी झंझट ? मैंने कहाः फिर कोई नारी नरक न जा सकेगी। फिर पुरुष ही पुरुष नरक जाएंगे। नारियों के लिए भी तो कोई नरक का द्वार बनाओ, नहीं तो अकेले पड़ जाओगे नरक में ! बड़ा दिल दुखेगा।
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नर भी नारी के लिए नरक का द्वार है। असल में नर-नारी का सवाल नहीं है-कामवासना एक ऐसी भीतरी वासना है जो आंखों को अंधा कर देती है; जो कुछ का कुछ दिखलाने लगती है; जो नहीं है, दिखाई पड़ने लगता है; जो है, नहीं दिखाई पड़ता। ऐसी मूर्द्धा का नाम है।
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अग्नि जैसो इंद्रलोक विघ्न जैसो विधि लोक,
कीरति कलंक जैसी, सिद्धि सी ठगारी है।
और सब तो ठीक ही है। इंद्रलोक में भी सिवाय इंद्रियों की तृप्सि के और कुछ भी नहीं है।... कीरति कलंक जैसी ! साधु तो वह है जो सिद्धि को भी ऐसा फेंक देता है, तुच्छ मान कर। बाहर के जगत में उपद्रव हैं, भीतर के जगत के भी उपद्रव हैं, उनसे भी सावधान रहना जरूरी है।
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बाहर जैसे शक्तिशाली लोग हो जाते हैं--राजनीति है, धन है, पद-प्रतिष्ठा है-वैसे ही भीतर भी क्षमताएं हैं मन की। मन तुम्हें जल्दी नहीं छोड़ देगा। अगर तुम मन पर मेहनत करते रहोगे तो मन कहेगाः "लो, यह लो एक शक्ति। तुम दूसरों का मन पढ़ सकते हो। किसी के भीतर कोई विचार चल सकता है, उसे देख सकते हो।" उलझे। सार कुछ भी नहीं है, क्योंकि अपने ही विचार देख-देख कर क्या पाया ? दूसरे का देख कर क्या खाक पाओगे ! वही पोटली दूसरे की। वहां भी क्या रखा है ?
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एक आदमी को मेरे पास लाया गया था। वह दूसरों के विचार पढ़ने में कुशल है। वह बैठ जाता आंख बंद करके, पांच मिनट शांति से, एकाग्र होकर और बताने लगता है कि आपके भीतर क्या विचार चल रहे हैं। वह मेरे सामने भी बैठ गया। वह आधा घंटा बैठा रहा। मैंने कहाः अब तू कुछ बोल। उसने कहाः क्या खाक बोलें ! क्योंकि कुछ चल ही नहीं रहा है। तो मैंने उससे पूछाः तू कब से इस उपद्रव में पड़ा है ? उसने कहा, तीस साल हो गए।
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"सार क्या है ? तू दूसरे का विचार भी पढ़ लेगा, इससे तुझे क्या मिलेगा ?" मगर उसकी बड़ी ख्याति थी ! उसके साथ कम से कम पचास तो उसके शिष्य आए थे। उसकी बड़ी ख्याति थी कि वह दूसरों का विचार पढ़ लेता है। टेलीपैथी, मैंने कहा मिलेगा तुझे क्या ? वह दूसरे के जो विचार हैं उसको ही अपने विचारों से कुछ नहीं मिल रहा, तू पढ़ेगा, तुझे क्या मिलेगा ? तू क्यों इस पागलपन में पड़ा है ? क्यों तीस साल गंवाए ? इतनी ऊर्जा से तो आदमी निर्विचार हो जाए।
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लेकिन ऐसी घटनाएं मन की घटनी शुरू होती हैं। तुम्हें थोड़ा सा भविष्य का दर्शन होने लगे, उलझे ! भूल गए सब, कि शून्य में जाना था। चले बताने दूसरों को कि तुम्हारी मृत्यु होने वाली है दस साल में, कि तुम्हारा पांच साल में धंधा खराब हो जाएगा। मगर सार क्या है ? साधु सिद्धि को भी डाल देता है, कचरे की तरह फेंक देता है।
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वासना न कोऊ बाकी ऐसी मति सदा जाकी,
सुंदर कहत ताहि वंदना हमारी है।
और ऐसा ही व्यक्ति वंदनीय है। ~ ओशो
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