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*जब लग शीश न सौंपिए, तब लग इश्क न होय।*
*आशिक मरणै ना डरै, पिया पियाला सोय ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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जब लग शीश न सौंपिए, तब लग इश्क न होय।
आशिक मरणै ना डरै, पिया पियाला सोय ॥
जब तक सिर सौंपने की तैयारी न हो तब तक प्रेम न होगा। सिर के दो अर्थ हैं। एक तो तुम्हारा सोच-विचार; और दूसरा तुम्हारा अहंकार। सिर तुम्हारी अकड़ है और सिर तुम्हारा चिंतन भी। तुम्हारे विचार भी सारे सिर में संगृहीत हैं और तुम्हारी अस्मिता भी, मैं-भाव भी।
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जब लग शीश न सौंपिए... जब तक इस सिर को ही उतार कर न दे दोगे कहीं... ...तब लग इश्क न होई।
तब तक तुम्हें प्रेम का पता न चलेगा। मिटोगे नहीं, प्रेम का पता न चलेगा। तुम्हारे रहते प्रेम का पता न चलेगा, तुम्हारे मिटते ही पता चलेगा। तुम्हारे मिटने पर ही प्रेम पैदा होता है। जैसे बीज के मिटने पर वृक्ष पैदा होता है। ठीक तुम बीज की तरह हो। मिटोगे तो ही कुछ बड़ा तुम्हारे भीतर पैदा होगा।
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और यही बाधा है। तुम डरते हो मिटने से। तुम मृत्यु से भयभीत हो कि कहीं मिट न जाऊं ! तुम अपने को बचाते हो। बचाने से हिंसा पैदा होती है। तुम दूसरे को मिटाने में लग जाते हो। दो तरह के लोग हैं संसार में। एक, जो अपने को बचाने में लगे हैं। स्वभावतः जो अपने को बचाने में लगता है, वह दूसरे को मिटाने में लग जाता है।
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दूसरे, जिन्होंने यह समझ लिया कि मिटना तो होगा ही, मौत तो आने ही वाली है। इसलिए उसकी चिंता छोड़ दी। विपरीत, उन्होंने अपने को मिटाने में लगा दिया। जो अपने को मिटाने में लगता है, वह दूसरे को मिटाने में नहीं जाता। और जो स्वयं को पूरी तरह मिटा देता है, उसी के जीवन में प्रेम की सुगंध का जन्म होता है।
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आशिक मरणै ना डरै... वह जो प्रेमी है, वह मरने से नहीं डरता।
पिया पियाला सोय॥ वही प्रेम के प्याले को पीने का हकदार हो पाता है।
यह तुमने कभी खयाल किया कि साधारण जीवन में भी प्रेमी मरने से नहीं डरता। साधारण जीवन के प्रेम में भी ! इस बड़े प्रेम को हम छोड़ दें। मजनू-फरिहाद जैसे साधारण प्रेमी भी मरने से नहीं डरते। प्रेम में कुछ बात है। प्रेम मृत्यु से बड़ा है। और जो प्रेम मृत्यु से डर जाए वह प्रेम ही नहीं है।
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अगर तुम्हारे जीवन में कभी प्रेम क्षण भर के लिए भी उतरा हो तो तुम अपने को पूरा मिटाने को राजी हो जाओगे। तुम कहोगे, यह क्षण मेरे लिए पर्याप्त है। यह एक क्षण जान लिया, सब जान लिया। यह एक क्षण मेरे लिए शाश्वतता है। अब इसके पार कुछ जानने को नहीं बचा। अब अगर मर भी जाऊं, तो मैं तृप्त मर रहा हूं, अतृप्त नहीं।
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जब साधारण प्रेम में ऐसी घटना घटती है तो उस असाधारण प्रेम की तो बात ही क्या कहनी, जो व्यक्ति और गुरु के बीच पैदा होता हो या व्यक्ति और परमात्मा के बीच पैदा होता हो। उस प्रेम की दशा में ऐसा अहसास ही नहीं होता कि मैं मर सकता हूं। प्रेम अमृत है। जिसने प्रेम को जाना, उसने मृत्यु के भय को भी उसी क्षण छोड़ दिया।
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यहां तुम जीवन में अगर निरीक्षण करोगे, तो तुम उन लोगों को सर्वाधिक मृत्यु से डरता हुआ पाओगे जिन्होंने न कभी प्रेम किया और न कभी प्रेम दिया। उन्हें तुम धन को पकड़ते हुए पाओगे, क्योंकि धन मौत से रक्षा का आश्वासन है। तुम कृपण आदमियों को प्रेम करते न पाओगे।
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कृपण आदमी धन को पकड़ता है। क्योंकि धन से ऐसा आश्वासन मिलता है कि शायद मौत से बचने का कोई उपाय धन में छिपा हो। वह बड़े मकान बनाएगा, बड़ा धन इकट्ठा करेगा, बड़ी तिजोड़ी सुरक्षा करेगा, लेकिन प्रेम नहीं करेगा। क्योंकि प्रेम में बांटना पड़ता है। कृपण बांट नहीं सकता। कृपण दे नहीं सकता। वह केवल ले सकता है।
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कृपण की केवल मांग है; दान उसने जाना नहीं। और जिसने देना न जाना, वह प्रेम कैसे जानेगा ! क्योंकि प्रेम तो देने की शुद्धतम भाव-दशा है। कोई अपने को पूरा दे डालना चाहता है। कोई इसमें ही प्रसन्न है कि जिसे मैंने प्रेम किया है उस पर सब भांति न्यौछावर हो जाऊं। कुछ भी मेरे पास न बचे, सब दे डाल। उस सब देने में ही अमृत की पहली झलक आती है।
आशिक मरणै ना डरै, पिया पियाला सोय॥
वही उस प्रेम का, प्रेमी का प्याला पीने में समर्थ हो पाता है।
OSHO

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