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*दादू एता अविगत आप थैं, साधों का अधिकार ।*
*चौरासी लख जीव का, तन मन फेरि सँवार ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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गोविंद के किये जीव जात है रसातल को,
गुरू उपदेश सो तो छूटै यम फंद तै ।
गोविंद के किये जीव वश पडै कर्मन के,
गुरु के निवाजै सो तो फिरत स्वछंद तै ॥
गोविंद के किये जीव बूडत भौ सागर में,
सुंदर कहत गुरु काढै दुख द्वंद्व तै ।
और हू कहां लौ कुछ मुख से कहै बनाइ,
गुरु की तो महिमा अधिक है गोविन्द तै ॥
गोविंद के किए जीव जात है रसातल कौं बहुत अदभुत वचन है ! सुंदरदास कहते हैं-- गोविंद के किये वचन जात हैं रसताल कौं गोविंद ने बनाया लोगों को और लोग नर्क जा रहे हैं। गुरु उपदेश सु तो छूटै जम फंद तें। गुरु का उपदेश सुन लें तो मृत्यु का फांस से छूट जाएं, फांसी कटे। गोविंद के किये जीव बस परे कर्मनि के।
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गोविंद के बनाए हुए जीव-और कर्म के चक्करों में पड़ गए हैं, वासनाओं में उलझ गए हैं, इंद्रियों मग उलझ गए हज, हजार तरह के कारागृहों में पड़ गए हैं ! गुरु के निवाजे सो फिरत हैं स्वच्छंद तें। लेकिन जिसको गुरु ने उबारा, वह मुक्त होकर, वह मुक्ति होकर, स्वतंत्रता बनकर, स्वच्छंदता बनकर विचरता है।
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वे यह कह रहे हैं कि जरा देखो तो, गोविंद के बनाए हुए जीव की ऐसी गति हो रही है ! जिस पर गोविंद के हाथ की छाप है, वह भटक रहा है ! लेकिन जिसके ऊपर गुरु का हाथ पड़ा, वह संभव गया है। ऐसा मत सोचना कि सुंदरदास कुछ गोविंद की निंदा कर रहे हैं। वे बड़ी मधुर बात कह रहे हैं। उस मधुर बात की गहराई में उतरना जरूरी है।
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परमात्मा स्वतंत्रता देता है। यह उसकी भेंट है। स्वतंत्रता में बुरे होने की स्वतंत्रता भी सम्मिलित है। क्योंकि वह स्वतंत्रता तो क्या स्वतंत्रता होगी, जिसमें अच्छे ही होने की स्वतंत्रता हो ? वह तो स्वतंत्रता न होगी। वह तो परतंत्रता ही होगी। और परतंत्रता कैसे अच्छी हो सकती है ? तो गुरु कुछ और देता है, परमात्मा कुछ और। परमात्मा देता है कि तुम्हें जो होना हो, हो जाओ।
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तुम्हारी किताब को कोरी छोड़ देता है, तुम्हें जो लिखना हो लिख लो। तुम्हें पाप करना हो पाप करो, पुण्य करता हो पुण्य। तुम पूरे स्वतंत्र हो। और स्वभावतः नीचे उतरना आसान है, ऊपर चढ़ना कठिन है। लोग नीचे उतरते हैं। लोग पाप में उतरे हैं। पाप में प्रबल में प्रबल आकर्षण मालूम होता है, क्योंकि सरल मालूम होता है। परमात्मा ने स्वतंत्रता दी है और परिणाम यह है कि लोग गुलाम हो गए हैं-- वासनाओं के, संसार के।
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गुरु का काम ठीक उलटा है। गुरु अनुशासन देता है। गुरु तुम्हारे जीवन को जीने का ढंग, शैली देता है। गुरु शास्ता है। तुम्हारे जीवन को एक रंग-रूप देता है। तुम्हारे अनगढ़ पत्थर को ढालता है। इसलिए ऊपर से तो ऐसा लगता है कि जो लोग गुरु के पास गए वे गुलाम हो गए। ऊपर से यह बात ठीक भी मालूम पड़ती है, क्योंकि अब गुरु जो कहेगा वैसा वे जीएंगे।
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गुरु का इशारा अब उनका जीवन होगा। गुरु के सहारे चलेंगे। गुरु की नाव में यात्रा होगी। गुरु की शर्ते स्वीकार करनी होंगी। गुरु की प्रति समर्पण करना होगा। तो बड़ा विरोधाभासी है। परमात्मा स्वतंत्रता देता है और परिणाम है कि सभी लोग परतंत्र हो गए हैं। और गुरु अनुशासन देता है और परिणाम में स्वतंत्रता उपलब्ध होती है।
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क्योंकि जैसे-जैसे व्यक्ति अनुशासित होता है, जैसे जैसे व्यक्ति के जीवन में एक व्यवस्था, एक तंत्र पैदा होता है; जैसे-जैसे व्यक्ति के जीवन में होश संभलता है; जैसे-जैसे व्यक्ति का जीवन जागरूक जीवन होने लगता है-वैसे-वैसे स्वतंत्रता का नया आयाम खुलता है, स्वच्छंदता पैदा होती है। स्वच्छंदता शब्द का अर्थ अच्छृंखता मत कर लेना। स्वच्छंदता का ठीक वही अर्थ होता है, जो स्वतंत्रता का।
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स्वतंत्रता से भी बहुमूल्य शब्द है स्वछंदता। स्वच्छंता का अर्थ होता है, जिसके भीतर का छंद जग गया, जिसके भीतर का गीत जग गया। जो अपना गीत गाने के योग्य हो गया। जो गीत गाने के लिए परमात्मा ने तुम्हें भेजा था, और तुम भटक गए थे। जो बनने तुम्हें परमात्मा ने भेजा था, लेकिन तुम विपरीत चले गए थे, क्योंकि और हजार आकर्षण थे। और तुम्हें कुछ होश न था।
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ऐसा ही समझो कि छोटे बच्चे को तुमने बड़ी से बड़ी बहुमूल्य किताब लाकर दे दी और उसने उसको गूद डाला। अभी उसे लिखना आता ही नहीं। कुछ अर्थ-पूर्ण बात तो तभी लिख सकेगा। जब लिखना आए। लेकिन लिखने के पहले गुरु की प्रक्रिया से गुजरना होगा। किसी पाठशाला से गुजरना होगा। फिर यही गूदना, लिखना बन जाता है।
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है तो वह भी गूदना, मगर उसमें अर्थ आ जाता है, उसमें भाव आ जाते हैं। यही गूदना धीरे-धीरे सम्यक रूप ले लेता है, आकार ले लेता है। और इसी गूदने में से महाकाव्य पैदा हो सकते है। हम गीत लेकर आए हैं अपने प्राणों में, जो गाना है; जिसको बिना गाए तृप्ति नहीं मिलेगी; जिसे गाओ, तो ही तृप्ति है; जिसे जिस दिन गा लोगे... जैसे यह कोयल सुनते हो, कुहू कुहू कहे जा रही है। यह उसके प्राणों का गीत है।
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वृक्षों में फूल खिले हैं, ये उनके प्राणों का गीत हैं। मनुष्य के भीतर भी कोई गीत छिपा है। उस गीत का नाम ही निर्वाण है, मोक्ष है। जब तुम गीत गा लोगे, उसी गीत के गाने में ही तुम पाओगे। परितृप्ति बरस गई, परितोष छा गया। आनंद ही आनंद है फिर। वसंत में फूलों से भरे वृक्ष को देखा है ?
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वही सिद्ध की दशा है। उसके फूल तुम्हें दिखाई नहीं पड़ते। उसके फूल देखने के लिए भीतर की आंखें चाहिए। वसंत में नाचते हुए, दुल्हन की तरह सजे हुए वृक्ष के पास से गुजरे हो ? उसकी सुवास अनुभव की है ? लेकिन वह सुवास तुम्हें अनुभव हो जाती है, क्योंकि तुम्हारे नासापुट काम कर रहे हैं। अगर तुम्हें सर्दी-जुखाम हो, तो तुम्हें पता नहीं चलेगा उस सुगंध का। फूल-भरा हो वृक्ष, लेकिन तुम अंधे होओ, तो शायद तुम्हें पता नहीं चलेगा।
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ऐसे ही भीतर हम अंधे हैं और बहरे हैं और भीतर हमारे हृदय में अभी अनुभव करने की क्षमता नहीं है। इसलिए गुरु के पास एकदम से पता नहीं चलता कि क्या हुआ है। लेकिन यही हुआ है-- वसंत आ गया है। फूल खिल गए हैं। सुवास उड़ रही है। जो थोड़े करीब आने लगेंगे, जो पास करकने लगेंगे गुरु के, जो गुरु के हाथ में हाथ अपना देने लगेंगे, धीरे-धीरे ये तरंगें उन पर छा जाएंगे, यह मस्ती उनकी भी आंखों में भरी जाएगी।
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यह संक्रामक है मस्ती। वे भी बेहोश होने लगेंगे। वे भी मदहोश होने लगेंगे। गुरु से संबंध तुम्हें अनुशासन देगा, एक जीवन की शैली देगा। ध्यान देगा, प्रेम देगा, अंतर्यात्रा के उपाय देगा।परमात्मा ने स्वतंत्रता दी; परिणाम है कि तुम गुलाम हो गए हो। गुरु तुम्हें एक तरह की गुलामी देता मालूम पड़ता है और परिणाम में स्वतंत्रता हाथ आती है। ऐसा विरोधाभासी है।
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गोविंद के किए जीव जात हैं रसातल कौं, गुरु उपदेश सु तो छुटें जमफंद तें। गोविंद के किए जीव बस परे कर्मनि के, गुरु के निवाजे सो फिरत हैं स्वच्छंद तें। गोविंद के किए जीव बूड़त भौसागर में उसके बनाए हुए, परमात्मा के बनाए हुए लोग, और भव-सागर में डूब रहे हैं !
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गोविंद के किए जीव बूड़त भौसागर में,
सुंदर कहत गुरु काढै दुख द्वंद्व तें।
लेकिन जिसने गुरु का साथ पकड़ा वह दुख से और द्वंद के बाहर हो गया। वह दो के बाहर हो गया, दुई के बाहर हो गया, द्वंद्व के बाहर हो गया, इसलिए दुख के बाहर हो गया।
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दुख और द्वंद पर्यायवाची हैं। तुम दुख में हो क्योंकि तुम दो हो। जब तक तुम दो हो तब तक दुख में रहोगे। दो में खेंचातानी चलती रहेगी--बाहर कि भीतर, यह कि वह पृथ्वी, कि आकाश। चुनाव ही चुनाव और चुनाव में खेंचातानी है। और चुनाव में तनाव है। एक ही बचे, मैं न रहूं, तू ही रहे। या मैं ही रह जाऊं, तू न रहे। एक ही बचे।
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फिर सारा द्वंद गया, फिर सारा दुख गया। फिर विराम है, फिर विश्राम है। गोविंद के किए जीव बूड़त भौसागर में सुंदर कहत गुरु काढ़े दुख द्वंद तें। और हू कहां लौं कछू मुख तैं कहै बनाइ सुंदरदास कहते हैं: बड़ी मुश्किल है, जो कहना चाहता हूं, कह नहीं पा रहा हूं। जो, वह पर्याप्त नहीं है।
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गुरु की प्रशंसा कैसे करूं? किस मुंह से करूं ? मेरी वाणी समर्थ नहीं है। और हू कहां लौं कछु मुख तें कहै बताइ गुरु की तो महिमा अधिक है गोविंद तें। गुरु की महिमा गोविंद से ज्यादा है। इसलिए जिन्होंने महावीर में गुरु को देखा, महावीर को भगवान कहा। जिन्होंने बुद्ध में गुरु को देखा, बुद्ध को भगवान कहा।
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और तुम जानते हो, बुद्ध भगवान में मानते नहीं। और महावीर ने कहा है: कोई भगवान नहीं। लेकिन फिर भी शिष्य नहीं रुक सका भगवान कहने से। शिष्य क्या करे ? उसकी कठिनाई समझो। उसकी मजबूरी, उसकी असहाय अवस्था ! उसको एक बात समझ में आ गयी है कि परमात्मा का बनाया हुआ तो मैं भटक रहा था, डूबता जाता था--और अंधेरों में, और विषाद में, और तमस में। गुरु ने हाथ बढ़ाया, उबारा। ये हाथ... भगवान के होने का पहला सबूत मिला।
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कबीर का वचन है न-
गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पांय।
बड़ी मुश्किल खड़ी हो गयी है, कबीर कहते हैं। गुरु भी सामने, गोविंद भी सामने, परमात्मा भी आ गया सामने, गुरु भी खड़े हैं-- अब मैं किसके पैर लगूं पहले ? भूल न हो जाए। गुरु के पैर लगूं पहले, तो कहीं ऐसा न हो कि परमात्मा का मुझसे अपमान हुआ। और परमात्मा के पैर को लगूं पहले, क्योंकि बिना गुरु के परमात्मा था ही कहां।
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गुरु गोविंद दोऊ बड़े, काके लागू पांय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय ॥
लेकिन वे कहते हैं कि गुरु की बलिहारी है कि उसने जल्दी से इशारा कर दिया गोविंद की तरफ। गुरु का इशारा गोविंद की तरफ है, इसलिए गुरु गोविंद से भी बड़ा है। क्योंकि उसके सारे इशारे गोविंद की तरफ है। गुरु का उठना, बैठना, बोलना, न बोलना, तुम्हारे प्रति कठोर, करुणावान होना, सबके पीछे एक ही विराट आयोजन है कि तुम जाग जाओ, गोविंद तुम्हें दिखाई पड़ जाए।
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इसलिए कहते हैं सुंदरदास... गुरु की तो महिमा अधिक है गोविंद तें। इस जगत में गुरु को जिसने पा लिया, उसने गोविंद को पा लिया। गुरु को पा लिया, तो गोविंद अब ज्यादा दूर नहीं है। पहुंच ही गए। मंदिर में द्वार पर पहुंच गए, तो मंदिर अब कितनी दूर है ! जिसने गुरु को पा लिया, जिसने गुरु को पहचान लिया, उसने यह बात पहचान ली कि यह जगत पदार्थ पर समाप्त नहीं होता।
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यहां और भी महिमाएं हैं, और भी रहस्य हैं। यहां बड़े छुपे हुए राज हैं। यहां मिट्टी ही मिट्टी नहीं है। यहां मृण्मय में चिन्मय भी छिपा है। यहां मर्त्य में अमृत का वास है। जितने गुरु को पहचान लिया, उसने नाव छोड़ दी परमात्मा की तरफ। वह चल पड़ा। उसका तीर निकल गया धनुष से। लक्ष्य-वेध हो ही जाएगा। असली सवाल धनुष से तीर का निकल जाना है।
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गुरु के चरणों में जो झुका, वह झुक ही गया परमात्मा के चरणों में- -परोक्ष रूप से। गुरु तो बहाना है, गुरु तो निमित्त है। जीवन में तुम्हें जहां भी किसी जीवंत व्यक्ति के पास शांति मिले, सुगंध मिले, प्रेम मिले, तुम्हें रूपांतरित करने की कीमिया मिले, फिर संकोच मत करना। फिर रुकना मत। फिर किन्हीं भयों के कारण ठहर मत जाना। फिर साहस रखना। झुक जाना। दांव पर सब लगा देना।
OSHO

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