शुक्रवार, 29 दिसंबर 2023

*साधारण उपदेस चिंतावणी कौ अंग ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*वैरी मारे मरि गये, चित तैं विसरे नांहि ।*
*दादू अजहूँ साल है, समझ देख मन मांहि ॥*
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*साधारण उपदेस चिंतावणी कौ अंग ॥*
बषनां हम तौ कहैंगे, रोस करौ मति कोइ ।
माया अरु स्वामीपणौं, दोइ दोइ बात न होइ ॥१॥
बषनांजी कहते हैं, हम तो सत्य बात ही कहेंगे । कोई हमारी बात सुनकर क्रोधित न हो । वस्तुतः यदि कोई स्वामी = विरक्त है तो उसे माया का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये । क्योंकि कोई स्वामी भी कहलाना चाहे और माया = धन-दौलत का संग्रह भी करना चाहे तो इसप्रकार का दो राहों पर चलने का मार्ग उसको शोभा नहीं दे सकता । इन दो राहों पर चलने से उस विरक्त का न लोक सुधरता है और न परलोक ही सुधरता है ॥१॥
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बषनां हम तौ कहैंगे, रोस करौ मति कोइ ।
बैरागी कौं क्यौं बणैं, कनक कामणी दोइ ॥२॥
बषनांजी कहते हैं, हम तो सत्य बात ही कहेंगे । हमारी बात को सुनकर कोई क्रोधित न हो । वस्तुतः जिसने वैरागी = राग हीन होना निश्चय कर लिया हो उसके लिये कनक = माया का संग्रह तथा कामनी = पत्नी को घर में रखकर कामोपभोग करना क्योंकर श्रेयस्कर हो सकता है ॥२॥
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घर घरणी कौ त्याग करि, औराँ सेती ह्याव ।
बैरागी सिर पालणा, बषनां कौंण गाँव कौ न्याव ॥३॥
यह किस गाँव का न्याय है अर्थात् कौनसा सिद्धांत है कि ओर तो वैरागी बनने के लिये अपने घर व स्वयं की औरत को त्याग, वैरागी का बाना पहन ठाकुरजी का सिंहासन शिर पर रखे घूमते हो और दूसरी ओर दूसरों की औरतों व घरों से सम्बन्ध (ह्याव) रखते हो । वस्तुतः बषनांजी ने यहाँ विषयों के स्थूल त्याग को त्याग न मानकर कम का विषयों से सर्वथा उपराम होने को त्याग माना है । 
“विषया विनिवर्तंते निराहारस्य देहिनः । 
रस्वर्ज्यंरसोप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥३॥”
(क्रमशः)

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