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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*३९. बिनती कौ अंग ८५/८८*
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सकल बुराई जीव की, रांम भलाई तोर ।
कहि जगजीवन सुमति द्यौ, नांम भजै मन मोर१ ॥८५॥
(१. मन मोर=मन रूपी मयूर, अथवा मेरा मन)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इस जीव में सभी बुराइयां हैं और आप में सब भलाइयां आप हमें बुद्धि दें जिससे हम आपका नाम स्मरण करतें रहे ।
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जिहिं तुम रीझौ तुम खुसी, तुम भावै सौ बात ।
कहि जगजीवन रांमजी, कहि समझावौ तात ॥८६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जैसे आप प्रसन्न रहो खुश रहो जो बात आपको अच्छी लगे, हे पिता आप हमें वह ही कह समझाइये ।
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कहि जगजीवन काल कलि, कर छिटक्या किहिं कांम ।
करता क्रित्तिम दूर करि, कर गहि राखौ रांम ॥८७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इस कलियुग में हाथ मत छोड़िये हमसे कर्ता भाव दूर करें । और आप हमारा हाथ पकड़े रहो ।
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चित चक्रित चक्रचाल२ मन, नरम गरम भै भरम ।
कहि जगजीवन आदि गुर, अबिगत काटौ करम ॥८८॥
(२. चक्रचाल=भ्रम में पड़ा हुआ)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हमारा चित भ्रम में पड़ा है वह चलायमान होता है । भय व भ्रम से त्रस्त है । आप ही हमारे आदि यानि सबसे पहले गुरु हैं आप हमारे अविगत कर्म काटिये ।
(क्रमशः)
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