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*देव दयाल कृपाल दमोदर, प्रेम बिना क्यों रहिये रे ।*
*दादू रंग भर राम रमाड़ो, भक्त-बछल तूँ कहिये रे ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ पद्यांश. १५२)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*इन्दव-*
*इस की पद्य टीका*
*श्री परबोध अनन्द बड़े भक्त जन,*
*चैतनि जू अति होत पियारे ।*
*कृष्ण प्रिया निज१ केलि सु कुंजन,*
*कैत२ भये रु करे दृग तारे ॥*
*बास वृन्दावन ले सु प्रकाशत,*
*दे सुख धर्म रु कर्म निवारे ।*
*ताहि सुने सुन कोटि हजारन,*
*रंग छयो वन पै तन वारे ॥३७५॥*
श्रीप्रबोधानन्दजी बड़े ही रसिक भक्त हुए हैं । आप श्रीकृष्ण चैतन्यजी के अति प्रिय पार्षद थे ।
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आपने श्रीराधाकृष्णजी की१ कुञ्ज केलि का वर्णन अति नवीन ढंग से किया२ है । आपने युगल रूप-रस का पान करते हुए युगलचन्द्र को अपने नेत्रों के वन वास का आनन्द लेते हुए उस महानन्द को अपने काव्य में भी प्रकट किया है ।
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इस प्रकार उपासकों को सुख देते हुए उनके भ्रमपूर्ण कर्मों को छुड़ाया है । आपके उस ग्रंथ को सुनकर हजारों कोटि अर्थात् असंख्य लोगों ने प्रभु-प्रेम को प्राप्त किया है ।
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आपने अपने शरीर को भी वृन्दावन पर ही निछावर किया था । अर्थात् आपने अपना शरीर वृन्दावन में ही छोड़ा था ।
(क्रमशः)
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