सोमवार, 25 दिसंबर 2023

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*कर्म फिरावैं जीव को, कर्मों को करतार ।*
*करतार को कोई नहीं, दादू फेरनहार ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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कर्म फिरावै जीव को, कर्मों को करतार।
करतार को कोई नहीं, दादू फेरनहार ॥
कर्म फिरावै जीव को... व्यक्ति भटकता है कर्मों के कारण। वह जो-जो करता है, सोचता है मैंने किए हैं। मैंने किए और अहंकार निर्मित हुआ। और फिर अहंकार भटकाता चला जाता है।
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कर्म फिरावै जीव को, कर्मों को करतार। और भ्रांति यह है कि कर्मों को चलाने वाला परमात्मा है, तुम नहीं। जिस दिन यह तुम्हें समझ में आ गया कि कर्मों को चलाने वाला वह है, मैं नहीं; कर्ता मैं नहीं हूं, कर्ता वह है; उसी दिन तुम बाहर हो गए नींद के। नींद की कुल कला इतनी है कि तुम सोचते हो, कर्ता मैं हूं।
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कर्ता परमात्मा है। जैसे कि कोई कठपुतलियों को नचाता है। धागे छिपे होते हैं भीतर। भीतर छिपा होता है नचाने वाला। धागे तुम्हें दिखाई नहीं पड़ते। कठपुतलियां नाचती दिखाई पड़ती हैं। न मालूम कितने कृत्य करती हैं। दर्शक धोखा खा जाए, वह तो ठीक है। क्योंकि दर्शक को कुछ पता नहीं कौन पीछे छिपा है; धागे छिपे हैं।
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कठपुतलियां नाचती हैं, लड़ती हैं, प्रेम करती हैं, विवाह करती हैं, सब होता है। लेकिन कठपुतलियों को भी भ्रांति हो सकती है अगर होश हो। क्योंकि कठपुतलियों को तो बिलकुल दिखाई नहीं पड़ेगा कि धागे पीछे बंधे हैं, कोई पीछे नचा रहा है। कठपुतलियां तो समझेंगी, हम नाचते हैं। वही कहानीजो पत्थर की हुई, कठपुतलियों की होगी।
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वही सारे मनुष्य की कथा है भ्रांति की। सारा कृत्य परमात्मा का है, समग्र का है। परमात्मा शब्द न लेना हो, कोई हर्जा नहीं। कृत्य अस्तित्व का है। तुम सिर्फ कठपुतली हो पांच तत्वों से बने। धागे सब पीछे छिपे हैं। उन्हीं धागों के अनुसार सारा खेल चलता है। लेकिन तुम सोचते हो, कर्ता मैं हूं। बस, तब फिर कर्म तुम्हें भटकाने लगते हैं। तब तुम गहरी नींद में खो गए।
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जैसे ही समझ लोगे कि कर्ता सिर्फ परमात्मा है-कर्मों को करतार- वही फिरा रहा है कर्मों को, तुम बाहर हो गए। तब तुम कठपुतली की तरह नाचो। कृष्ण गीता में अर्जुन से यही कह रहे हैं कि तू कठपुतली हो जा। तू यह सोच ही मत कि तू मारने वाला है, कि तू मरने वाला है, कि तू करने वाला है। तू निमित्त हो जा, तू कठपुतली हो जा। उसे खींचने दे धागे, उसे करने दे खेल, तू बीच में मत आ। बस फिर तेरा कोई कर्म नहीं है। फिर कोई कर्म बांधता नहीं है।
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करतार को कोई नहीं, दादू फेरनहार॥ और परमात्मा के पार कोई भी नहीं है, जो उसे फिरा दे। यद्यपि तुम्हारी चेष्टा न केवल तो यह होती है, तुम यह तो मानते ही हो कि तुम अपने को चलाते हो, तुम परमात्मा को भी चलाने की कोशिश करते हो। जाते हो, प्रार्थना करते होकि देखो पत्नी बीमार है, इसे ठीक करो।
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नारियल चढ़ाएंगे, पूजा करेंगे, श्रद्धा करेंगे, प्रार्थना करेंगे। लड़का नहीं है, लड़का दे दो। अदालत में मुकदमा है, जिता दो। तुम परमात्मा को भी फिराने की कोशिश करते हो। तुम्हारी सारी प्रार्थनाएं परमात्मा को फिराने की चेष्टाएं हैं। इसलिए तो तुम्हारी सारी प्रार्थनाएं व्यर्थ चली जाती हैं। उनका कोई परिणाम नहीं होता। क्योंकि उनका आधार गलत है।
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परमात्मा को फिराने की कोशिश तो हद पागलपन हो गई। अपने को चलाते थे, यह मानना ही भ्रांति है, अब तुम परमात्मा को भी चलाने लगे ! यह तो तुम मानते ही नहीं कि तुम्हारे धागे उसके हाथ में हैं; तुम्हारी चेष्टा यह है कि उसके धागे भी तुम्हारे हाथ में हो जाएं। और इसको तुम प्रार्थना कहते हो ! इसको तुम धार्मिक व्यक्ति कहते हो !
ओशो

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