गुरुवार, 11 जनवरी 2024

शब्दस्कन्ध ~ पद #३८४

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #३८४ )*
*राग भैरूं ॥२४॥**(गायन समय प्रातः काल)*
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*३८४. उपदेश चितावणी । त्रिताल*
*जप गोविन्द, विसर जनि जाइ, जनम सुफल करिये लै लाइ ॥टेक॥*
*हरि सुमिरण सौं हेत लगाइ, भजन प्रेम यश गोविन्द गाइ ।*
*मानुष देह मुक्ति का द्वारा, राम सुमिर जग सिरजनहारा ॥१॥*
*जब लग विषम व्याधि नहिं आई, जब लग काल काया नहिं खाई ।*
*जब लग शब्द पलट नहीं जाई, तब लग सेवा कर राम राई ॥२॥*
*अवसर राम कहसि नहीं लोई, जनम गया तब कहै न कोई ।*
*जब लग जीवै तब लग सोई, पीछै फिर पछतावा होई ॥३॥*
*सांई सेवा सेवक लागे, सोई पावे जे कोइ जागे ।*
*गुरुमुख भरम तिमर सब भागे, बहुरि न उलटे मारग लागे ॥४॥*
*ऐसा अवसर बहुरि न तेरा, देख विचार समझ जिय मेरा ।*
*दादू हार जीत जग आया, बहुत भांति कह-कह समझाया ॥५॥*
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हे मन ! गोविन्द को भूलकर इस असार संसार में व्यर्थ ही क्यूं भटक रहा हैं । गोविन्द के नाम को जप । अपने मन की वृत्ति को विषयों से रोकर अपने जन्म को सुफल करले । प्रेम से गोविन्द को भज और उसी का गुणानुवाद कर । यह नरजन्म मुक्ति का द्वार हैं अतः सृष्टिकर्ता श्रीराम का भजन कर ।
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जब तक तेरा शरीर स्वस्थ हैं कोई रोग से ग्रस्त नहीं हुआ है और काल का ग्रास भी नहीं बना तब तक विश्व के स्वामी श्रीराम का भजन कर । संसारी प्राणी पहली अवस्था में जो कि भजन का अवसर माना गया है उसमें तो गोविन्द को भजते नहीं किन्तु जब शरीर जरा व्याधियों से जर्जरित होकर वृद्ध हो जाता है तब भजन का विचार करते हैं परन्तु उस समय तो सामर्थ्य न रहने के कारण नाम का उच्चारण भी नहीं किया जा सकता भजन करना तो दूर रहा ।
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युवा अवस्था में तो सुख से जीता है और मोह निशा में सोता रहता हैं और जब बुढापे में दुःख आयेगा तब पश्चाताप करता हैं । अतः जो मनुष्य मोह निशा से जागकर प्रभु का स्मरण करता है वह भगवान् को प्राप्त कर लेता हैं ।
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जो गुरु के उपदेश को सुनता है उसका अज्ञानरुपी अन्धकार नष्ट हो जाता हैं । और भ्रम की भी निवृत्ति हो जाती हैं । हे मन तूं स्वयं विचार कर क्या ऐसा अवसर फिर मिल सकेगा । मैंने तुझे बार-बार समझाने की कोशिश की लेकिन तूं नहीं समझा । अब तो काम क्रोध लोभ मोह को जीतकर नरजन्म को सफल करले ।
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स्तोत्ररत्नावली में श्रीशंकारचार्य लिख रहे हैं कि –
हे मूढमन ! गोविन्द को बार-बार भज । मृत्यु के समीप आने पर यह जो तूं डुकृञ् करणे रट रहा है यह रक्षा नहीं कर सकेगा । काम, क्रोध, मोह, लोभ को त्यागकर अपने लिये विचार कर कि मैं कौन हूँ और कर क्या रहा हूँ ।
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जो मूढ आत्मज्ञान से रहित हैं वे नरक में पड़े हुए संतप्त होते रहते हैं । अतः सदा ही गोविन्द को भजा करो । जैसे रज्जु में भ्रम से सर्प का आरोप होता है उसी प्रकार शुद्ध ब्रह्म में जगत् का आरोप मात्र हैं । इस बात को तूं मन में बार-बार विचार कर और गौरीपति भगवान् को भज ।
(क्रमशः)

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