गुरुवार, 11 जनवरी 2024

ज्याँह याँह की संगति करी

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू मड़ा मसाण का, केता करै डफान ।*
*मृतक मुर्दा गोर का, बहुत करै अभिमान ॥*
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बषनां ज्याँह मैं बुधि नहीं, याँह स्यूँ मांडै काम ।
ऐ मनिख नहीं थे जाणज्यौ, गदहा सूकर स्वान ॥१३॥
बषनांजी कहते हैं जिनमें विवेक का अंश लेशमात्र भी नहीं है, संसारी लोग ऐसे विवेकहीनों से ही अपना काम = लोक=परलोक सुधरने का परामर्श लेते हैं । किन्तु हे सज्जन पुरुषों ! तुम ऊपर कहे गये विवेकी से दीखने वाले पंडितों के चक्र में मत पड़ो । ये विवेकी तो क्या मनुष्य भी नहीं हैं । ये तो गदहे, शूकर और स्वान-कुत्ते सदृश अधम हैं ॥१३॥
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साधाँ की निंदा करै, भगति दिढावै नाहिं ।
ज्याँह याँह की संगति करी, ते बूड़ा जग माहिं ॥१४॥
कथावाचक पंडित, मिश्रादि साधु-संतों की तो निंदा करते हैं किन्तु परमात्मा को प्राप्त कराने वाली निरपेक्ष साधनभूत भक्ति का उपदेश नहीं करते हैं । बषनांजी ठोक बजाकर कहते हैं जिसने भी इन पंडित-कथावाचकों का संग किया है, वे सभी भवसागर में डूबे हैं; जन्म-मरण के चक्र में ही उलझे रह गये हैं ॥१४॥
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किती अधौड़ी चीकटी, कोमल हुई और ।
मिश्र सीधड़ौ तेल कौ, बषनां सदा कठोर ॥१५॥
अधौड़ी = मिट्टी की हांडी, जिसमें घी रखा जाता है में जैसे-जैसे घी रखा जाता है, वैसे-वैसे ही वह कोमल = नरम होती जाती है । इसके विपरीत सीधड़ौ = मरे ऊँट की खाल से निर्मित कुप्पा, जिसमें पुराने जमाने में तैल भरकर रखा जाता था में जैसे-जैसे तैल भरा जाता है, वैसे-वैसे ही वह नरम होने के स्थान पर कठोर होता जाता है ।
यहाँ साधु संत घी की अधौड़ी से उपमित हैं जो भगवत्मार्ग पर जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं वैसे-वैसे उनमें नम्रता आती जाती है । इसके विपरीत सीधड़ा पंडितादि का प्रतीक है जिनमें जैसे-जैसे पंडिताई की ताकत बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे ही वे कठोर, निरंकुश, भोगी तथा उग्र प्रकृति के बनते जाते हैं ॥१५॥
इति साच चांणक कौ अंग संपूर्ण ॥अंग ५९॥साषी १०८॥
(क्रमशः)

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