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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #३८६)*
*राग भैरूं ॥२४॥**(गायन समय प्रातः काल)*
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*३८६. तत उपदेश । प्रतिताल*
*आप आपण में खोजो रे भाई, वस्तु अगोचर गुरु लखाई ॥टेक॥*
*ज्यों मही बिलोये माखण आवै, त्यों मन मथियां तैं तत पावै ॥१॥*
*काष्ठ हुताशन रह्या समाई, त्यूं मन माँही निरंजन राई ॥२॥*
*ज्यों अवनी में नीर समाना, त्यों मन माँही साच सयाना ॥३॥*
*ज्यों दर्पण के नहिं लागै काई, त्यों मूरति माँही निरख लखाई ॥४॥*
*सहजैं मन मथिया तत पाया, दादू उन तो आप लखाया ॥५॥*
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जैसे पृथिवी में गड़ा हुआ धन खोदने से मिलता हैं वैसे ही आत्मतत्त्व भी श्रवण मनन निदिध्यासन द्वारा गुरु के बताये हुए मार्ग से खोजने पर ही इन्द्रियातीत ब्रह्म की उपलब्धि होती है । जैसे पृथ्वी में सर्वत्र व्यापक जलकूप खोदने से मिलता है । जैसे काष्ठ में सूक्ष्मरूप से स्थित अग्नि सर्वत्र हैं, वैसे ही आत्मा भी सर्वत्र हैं ।
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वह ब्रह्मात्मा मन में ही विराजता है और जैसे दर्पण प्रतिबिम्ब के दोषों से दूषित नहीं होता, वैसे ही आत्मा शारीरिक तथा मानसिक धर्मों से दूषित नहीं होता । क्योंकि वह असंग है । तुम स्वयं विचार कर देखो जिन्होंने भी ब्रह्म को प्राप्त किया है उन सबने ध्यान के द्वारा ही प्राप्त किया है, अतः तुम भी मन का मन्थन करके उस ब्रह्म का ध्यान करो, जिससे तुझे भी आत्मा का साक्षात्कार हो जाय ।
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विवेकचूड़ामणि में –
जैसे पृथ्वी में गड़े हुए धन को प्राप्त करने के लिये प्रथम किसी विश्वसनीय पुरुष के कथन की आवश्यकता है । फिर खोदने के बाद में कंकर, पत्थर, मिट्टी को हटाने की तथा प्राप्त हुए धन को स्वीकार करने की आवश्यकता है, कोरी बातों से वह बाहर नहीं निकलता ।
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उसी प्रकार समस्त मायिक प्रपञ्च से शून्य निर्मल आत्मतत्त्व भी ब्रह्मवित् गुरु के उपदेश तथा मनन निदिध्यासन से प्राप्त होता है, थोथी बातों से नहीं । इसलिये रोग आदि के समान भवबन्धन की निवृत्ति के लिये विद्वान को अपनी संपूर्णशक्ति लगाकर स्वयं ही प्रयत्न करना चाहिये ।
(क्रमशः)

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