शुक्रवार, 26 जनवरी 2024

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*सूरज सन्मुख आरसी, पावक किया प्रकास ।*
*दादू सांई साधु बिच, सहजैं निपजै दास ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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बाबा मलूक दास, यह नाम ही ऐसा प्‍यारा है, तन मन-प्राण में मिसरी घोल दे। ऐसे तो बहुत संत हुए हैं, सारा आकाश संतों के जगमगाते तारों से भरा है। पर मलूक दास की तुलना किसी और से नहीं की जा सकती। मूलक दास बेजोड़ हैं। उनकी अद्वितीयता उनके अल्‍हड़पन में है—मस्‍ती में है, बेखुदी में। यह नाम मलूक का मस्‍ती का पर्यायवाची हो गया। इस नाम में ही कुछ शराब है। यह नाम ही दोहराओं तो भीतर नाच उठने लगे।
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मलूक दास न तो कवि थे, न दार्शनिक है, न धर्मशास्‍त्री है। दीवाने हैं। परवाने हैं । और परमात्‍मा को उन्‍होंने ऐसे जाना है जैसे परवाना शमा को जानता है। यह पहचान बड़ी और है। दूर-दूर से नहीं, परिचय मात्र नहीं है वह पहचान—अपने को गंवा कर, अपने को मिटा कर होती है। 
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राम दुवारे जो मरे। राम के द्वारे पर मर कर राम को पहचाना है। कवि हो जाये। लेकिन मलूक की मस्‍ती सस्‍ती बात नहीं है। महंगा सौदा है। सब कुछ दांव पर लगाना पड़ता है। जरा भी बचाया तो चूके। रति भी बचाया तो चूके। निन्यानवे प्रतिशत दांव पर लगाया और एक प्रतिशत भी बचाया तो चूक गए।
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क्‍योंकि उस एक प्रतिशत बचाने में ही तुम्‍हारी बेईमानी जाहिर हो गयी। निन्‍न्‍यानवे प्रतिशत दांव पर लगाने में तुम्‍हारी श्रद्वा जाहिर न हुई। मगर एक प्रतिशत बचाने में तुम्‍हारा काइयाँपन जाहिर हो गया। दांव तो हो तो सौ प्रतिशत होता है; नहीं तो दांव नहीं होता, दुकानदारी होती है।
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मलूक के साथ चलना हो तो जुआरी कि बात समझनी होगी। दुकानदार की बात छोड़ देनी होगी। यह दांव लगाने वालों की बात है—दीवानों की।/ धर्म शास्‍त्री नहीं है। नहीं समझ में पड़ता कि वेद पढ़े होंगे। नहीं समझ में पड़ता कि उपनिषद जाने होंगे। 
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लेकिन फिर भी वेदों का जो राज है और उपनिषदों का जो सार है, वह उनके प्राणों से बिखरता है। वेद जानकर कभी किसी ने वेद जाने स्‍वयं को जानकर वेद जाने जाते हैं। चार वेद नहीं है—एक ही वेद है। वह तुम्‍हारे भीतर; वह तुम्‍हारे चैतन्‍य का है। और एक सौ आठ उपनिषद नहीं है। एक ही उपनिषद है, और उपनिषद शास्‍त्र नहीं है; स्‍वयं की सत्‍ता है।
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मलूक दास ज्ञानी नहीं थे। पंडित नहीं है। मलूक दास से पहचान करनी हो तो मंदिर को मधुशाला बनाना पड़े। तो पूजा पाठ से नहीं होगा। औपचारिक आडम्‍बर से परमात्‍मा नहीं सधेगा। हार्दिक समर्पण चाहिए। समर्पण—जो कि समग्र हो, समर्पण ऐसा कि झुको तो फिर उठो नहीं। 
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उसके द्वार पर झुक गये तो फिर उठना कैसा। जो काबा से लौट आता है। वह काबा गया ही नहीं। जो मंदिर से वापिस आ जाता है। वह कहीं गया होगा मंदिर नहीं गया।
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मूलक दास के जीवन के संबंध में कुछ बातें जान लें वे प्रतीकात्‍मक हैं। समझ लेने जैसी है। ऊपर से तो नहीं दिखायी पड़ती कि बहुत कीमती है, लेकिन अगर उन प्रतीकों के भीतर प्रवेश करोगे के भीतर प्रवेश करोगे तो जरूर बड़े राज , बड़े रहस्‍यों के द्वार खुलेंगे।
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जो पहली घटना उनके संबंध में ज्ञात है। वह यह है कि बचपन से ही एक अजीब सी आदत उन्‍हें थी। रास्ते पर कोई कांटा पडा मिल जाये तो हजार काम छोड़कर पहले उस कांटे को हटाते। छोटे थे तब से, कूड़ा-करकट कहीं पडा मिल जाये.......ओर भारत के रास्‍ते कूड़ा-कर्कटक की कोई कमी है। कांटों की कमी है। 
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काम के लिए भेजा जाता तो घंटों लग जाते, क्‍योंकि पहले वे रास्‍ता साफ करें, कूड़ा करकट हटायें, कांटे बिनें। कभी-कभी सुबह घर से भेजे जाएं कि जाकर बाजार से सब्‍जी ले आओ, सांझ लौटें। दिन भर मां उनकी राह देखे कि तुम रहे कहां, गये कहां थे। तो वे कहते: और भी जरूरी काम आ गये, सब्‍जी से भी ज्‍यादा जरूरी काम आ गया, रास्‍ते पर कांटे थे कूड़ा करकट था उसे बीना, हटाया।
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ऐसे तो यह छोटी सी बात है, लेकिन छोटी नहीं है। जीवन भर भी यही किया—लोगों के रास्‍तों पर से कांटे बीनें। लोगो के जीवन से कांटे लोगों के मनों से भरा हुआ कूड़ा-कचरा साफ किया। पूत के लक्षण पालने में।
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एक सदगुरु ने यह उन्‍हें करते देखा था कि वे रास्‍ते पर कांटे बीन रहे हे, कूड़ा-करकट बीन रहे हैं। तो वह सदगुरु उनके पीछ हो लिया। दिन भर इस छोटे से बच्‍चे की यह अदभुत जीवनशैली देखता रहा। सांझ को लौटकर उसने मलूक दास के पिता सुंदर दास को कहा: धन्‍य भागी हो तुम। तुम्‍हारे घर एक सदगुरु पैदा हुआ है।
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सुंदर दास ने तो सर ठोक लिया। सुंदर दास ने कहा: हम परेशान हैं इस सद्गुरु से। किसी काम का नहीं। छोटे-मोटे काम को भेजो, दिन-भर व्‍यतीत हो जाता है। लौटता ही नहीं। यह तो किसी भंगी के घर पैदा होता तो अच्‍छा था। यह पिछले जन्‍म का भंगी होगा। 
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इसको पता नहीं क्‍या धुन है, मारा, पिटा, धमकाया, सब तरह से समझाया कि यह काम अपना नहीं है। तुझे क्‍या लेना देना है। और कुछ करना है कि रास्‍ते ही साफ करते रहना है ? मगर छोटा सा बच्‍चा मलूक दास हंसता ओ यह कहता कि यह काम जिन्‍दगी भर मुझे करना है, सो अभ्‍यास करते रहना है।
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लेकिन उस सद्गुरु ने कहा कि मत, मत ऐसा बात कहां। तुम्‍हें पता नहीं तुम क्‍या कह रहे हो। तुम्‍हारे घर ज्‍योति उतरी है। अभी कुछ और नहीं कर सकता छोटा बच्‍चा है, तो बाहर का कूड़ा-कचरा साफ कर रहा है। जल्‍दी ही यह भीतर का कूड़ा कचरा साफ करेगा। 
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बहुत लोगों के जीवन इसके कारण स्‍वच्‍छ और निर्मल होंगे। और देखते ही—सदगुरु ने कहा—यह आजानुबाहु है। इसकी बाहें कितनी लम्‍बी हैं। घुटनों तक पहुँचती है। यह तो चक्रवर्ती सम्राट होगा और या एक अद्भुत बुद्ध पुरूष....
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यह दुनिया बडी अद्भुत है इसका गणित अनोखा है। यहां जो समझदार साबित होने चाहिए, समझदार साबित नहीं होते। बड़े नासमझ सिद्ध होते हैं। यहां नासमझ समझदार सिद्ध हो जाते हैं। मलूक दास की गिनती तुम ना समझों में मत करना। उन्‍होंने मालिक को पा लिया और सब पा लिया।
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ओशो(राम दुवारे जो मरे)
प्रवचन पहला, 11नवम्‍बर 1979;
श्री रजनीश आश्रम; पूना

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