शुक्रवार, 5 जनवरी 2024

*३९. बिनती कौ अंग ९७/१००*

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*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*३९. बिनती कौ अंग ९७/१००* 
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जनम जनम हूँ दास तुम्हारौ, जनम जनम हूँ चेरो ।
कहि जगजीवन मिहर मया करि, राखौ चरनन नेरो ॥९७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु मैं आपका जन्म जन्म का सेवक व शिष्य हूँ आप मुझे अपने चरणों की शरण में रखें ।
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कहि जगजीवन रांमजी, राजपाट५ सुख भोग ।
भगती बिन फीका सकल, नौ खंड तीनों लोक ॥९८॥
(५. राजपाट=राज्यसिंहासन)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु जितने भी जीवन के सुख है वे चाहे  राज्यसिंहासन का सुखभोग ही क्यों न ही बिना आपकी भक्ति के नो खण्ड व तीनों लोकों में सब व्यर्थ या फीका सा मूल्य हीन लगता है ।
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कहि जगजीवन रांमजी, एहि६ कही हम टेरि ।
नांम मांहि राखौ प्रगट, ए पंचौं घर घेरि ॥९९॥
(६. एहि=यह) 
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु जी हम विनती कर पुकार कर कहरहे हैं कि इन पांचों इन्द्रियों को को आप सब और से हटा कर अपने नाम में ही  रखो ।
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कहि जगजीवन रांमजी, जनम जनम जस होइ ।
सेवा सुमिरन बंदगी, भाव भगति द्यौ मोहि ॥१००॥
संतजगजीवन  जी कहते हैं कि हे प्रभु आप सेवा, स्मरण व आज्ञानुसार चलने योग्य कर दें व भाव भक्ति दें तो मैं जन्म जन्म यश गाऊंगा ।
(क्रमशः) 

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