शुक्रवार, 5 जनवरी 2024

*भागवतं मथि काढ रतन्न हि*

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*कछू न कीजे कामना, सगुण निर्गुण होहि ।*
*पलट जीव तैं ब्रह्म गति, सब मिलि मानैं मोहि ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*विष्णुपुरीजी की पद्य टीका*
*इन्दव-*
*होत निलाचल मांहिं महाप्रभु,*
*चौं१ दिशि भक्तन भीर छई है ।*
*विष्णुपुरी कहि बास बनारस,*
*होन मुकत्ति हु चाहु भई है ।*
*पत्र लिख्यो प्रभु माल अमौलिक,*
*दे पठवो मम प्रीति नई है ।*
*भागवतं मथि काढ रतन्न हि,*
*दाम२ दिई पठि३ मुक्ति दही४ है ॥३६७॥*
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श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु नीलाचल श्रीजगन्नाथ क्षेत्र में थे, तब एक दिन चारों१ ओर भक्तों की भीड़ लगी हुई थी । संत समाज के मध्य में महाप्रभु विराज रहे थे ।
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उसी समय किसी ने कहा- विष्णुपुरीजी के मन में मुक्ति की इच्छा हो रही है, इस से मुक्तिक्षेत्र काशी में निवास कर रहे हैं । भक्ति तो उनमें नहीं दिखाई देती । महाप्रभु कृष्ण चैतन्यजी ने सबको समझाया कि ऐसा नहीं है । वे तो उन भक्तों में से हैं जो "मुक्ति निरादर भक्ति लुभाने" होते हैं ।
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फिर महाप्रभु ने उन लोगों के समाधान के लिये विष्णु पुरीजी को एक पत्र लिखा कि- "मेरे लिये एक अमूल्य रत्नों की ऐसी माला भेज दें, जिस में मेरी प्रीति नित्य नूतन होती रहे ।"
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पत्र प्राप्त होने पर आपने सम्यक् विचार करके तथा श्रीमद्भावगत का मन्थन करके अर्थात् भली भांति विचार करके पाँच सौ श्लोक रूप रत्न निकालकर "भक्तिरत्नावली" नामक अपूर्व माला२ बना कर महाप्रभुजी के पास भेज३ दी । उससे प्रकट रूप में ज्ञात होता था कि मुक्ति की आशा उनने जला४ डाली है अर्थात् आशा रहित प्रभु-प्रेम में ही निमग्न रहते हैं ।
(क्रमशः) 

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