रविवार, 21 जनवरी 2024

*श्री रज्जबवाणी पद ~ २०५*

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*आत्म मांही राम है, पूजा ताकी होइ ।*
*सेवा वंदन आरती, साध करैं सब कोइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग धनाश्री २०(गायन समय दिन ३ से ६)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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२०५ आरती । त्रिताल
आरती तुम ऊपरि तेरी, मैं कछु नांहि कहा कहूं मेरी ॥टेक॥
भाव भक्ति सब तेरी दीन्ही, ताकरि सेव तुम्हारी कीन्ही ॥१॥
मन चित सुरति शब्द सब तेरा, सो तुम लेहु तुमहीं पर फेरा१ ॥२॥
आतम उपजि सौंज२ सब तुमसे, सेवा शक्ति नांहि कछु हमसे ॥३॥
तू अपनी आप प्राणपति पूजा, रज्जब नांहिं करन को दूजा ॥४॥१॥
२०५-२०९ में निर्गुण ब्रह्म की आरती संबन्धी विचार प्रकट कर रहे हैं -
✦ प्रभो ! आपकी आरती आप पर ही होती है, मैं तो आप से भिन्न कुछ भी नहीं हूं, तब कैसे कह सकता हूँ कि - यह मेरी बनाई हुई आरती है ।
✦ श्रद्धा भक्ति आदि सामग्री सभी आपकी दी हुई है, उसी से आपकी आपकी सेवा की है ।
✦ मन, चित, वृत्ति और शब्द ये सब आपके ही हैं, सो आप ग्रहण करें, आप पर ही इनको निछावर१ करता हूं ।
✦ जीवात्मा में जो भी साधन-सामग्री२ उत्पन्न हुई है, सो सब आपकी कृपा से हुई है । सेवा करने की शक्ति हमसे तो कुछ भी उत्पन्न नहीं हुई है ।
✦ हे प्रभो ! आप ही प्राणपति हैं और आप ही अपनी पूजा हैं । मैं पूजा करने वाला आपसे दूसरा नहीं हूं ।
(क्रमशः)

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