रविवार, 21 जनवरी 2024

मैं तो मूर्ख हूँ ही

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*आत्म मांहै ऊपजै, दादू पंगुल ज्ञान ।*
*कृतम् जाइ उलंघि करि, जहां निरंजन थान ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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"मथुरबाबू के साथ मैं एक जगह और गया था । कितने ही पण्डित मेरे साथ विचार करने के लिए आये थे । मैं तो मूर्ख हूँ ही । (सब हँसते हैं ।) उन लोगों ने मेरी वह अवस्था देखी, और मेरे साथ बातचीत होने पर उन लोगों ने कहा, 'महाराज ! पहले जो कुछ हमने पढ़ा है, तुम्हारे साथ बातचीत करने पर उस सारी विद्या से जी हट गया ।
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अब समझ में आया, उनकी कृपा होने पर ज्ञान का अभाव नहीं रह जाता । मूर्ख भी विद्वान् हो जाता है, मूक में भी बोलने की शक्ति आ जाती है ।' इसीलिए कह रहा हूँ, पुस्तकें पढ़ने से ही कोई पण्डित नहीं हो जाता । "हाँ, उनकी कृपा होने पर फिर ज्ञान की कमी नहीं रह जाती । देखो न, मैं तो मूर्ख हूँ, कुछ भी नहीं जानता, परन्तु ये सब बातें कौन कहता है ? फिर इस ज्ञान का भाण्डार अक्षय है ।
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उस देश(कामारपुकुर) में लोग जब धान नापते हैं, 'राम-राम राम-राम' कहते जाते हैं । एक आदमी नापता है और एक दूसरा आदमी राशि पूरी करता जाता है । उसका काम यही है कि जब राशि घट जाय तब पूरी करता रहे । मैं भी जो बातें कह जाता हूँ, जब वे घटने पर आ जाती है, तब माँ अपने अक्षय ज्ञान-भाण्डार से राशि पूरी कर देती हैं ।
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"जब मैं बच्चा था, उस समय मेरे भीतर उनका आविर्भाव हुआ था । उम्र ग्यारह साल की थी । मैदान में एक विचित्र तरह का दर्शन हुआ । सब कहते थे, मैं उस समय बेहोश हो गया था । कोई भी अंग हिलता-डुलता न था । उसी दिन से मैं एक दूसरी तरह का हो गया । अपने भीतर एक दूसरे व्यक्ति को देखने लगा ।
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जब श्रीठाकुरजी की पूजा करने के लिए जाता था, तब हाथ बहुधा ठाकुरजी की ओर न जाकर अपनी ही ओर आता था, और मैं अपने ही सिर पर फूल चढ़ा लेता था । जो लड़का मेरे पास रहता था, वह मेरे पास न आता था । कहता था, 'तुम्हारे मुख पर एक न जाने कैसी ज्योति देख रहा हूँ ! तुम्हारे पास अधिक जाते भय उत्पन्न होता है ।’"
(क्रमशः)

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