शनिवार, 20 जनवरी 2024

*ज्ञान दगध खेचर कौ अंग*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू पाती प्रेम की, बिरला बांचै कोइ ।*
*बेद पुरान पुस्तक पढै, प्रेम बिना क्या होइ ॥*
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*ज्ञान दगध खेचर कौ अंग ॥*
सींग अड़ावै आँटी करै, जलै आपणी लाइ ।
बषनां तिन सौं क्या कथा, हरि का सुमिरण जाइ ॥१॥
ज्ञानदग्धी उसे कहते हैं जिसमें पुस्तकीय ज्ञान तो प्रभूतमात्रा में हो किन्तु आत्मानुभावीय ज्ञान का लेश भी न हो । यहाँ ऐसे ही ज्ञानदग्धियों के विषय में कहा गया है । पुस्तकीय ज्ञान के आधार पर, सींग अड़ावै = शास्त्रार्थ = वाद विवाद करते फिरते हैं । हारने पर आँटी = बदला लेने की गाँठ बाँधते हैं ।
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वस्तुतः ऐसे पुस्तकीय ज्ञान रखने वाले पांडित्याभिमानी लोग अपने द्वारा उत्पन्न राग द्वेष-रूपी अग्नि में स्वयं ही जल-जलकर मरते रहते हैं । बषनांजी का सत्परामर्श है कि ऐसे लोगों से किसलिये वार्तालाप किया जाये क्योंकि इनसे वार्तालाप करने से हरि का स्मरण तो छूटता ही है, आत्मचिंतन का कोई सूत्र भी हाथ नहीं लगता ॥१॥
“बूझ्याँ सूँ चरचा करै, छांड्या बाद बिवाद ।
पख्यपात सूँ ना बंधै, सो कहिये निज साध ॥”
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*रामचरणवाणी*
उलझ्या बोलै सबद मैं, लागा रंग कुरंग ।
बषनां तिनका सँग कियाँ, होइ भगति का भंग ॥२॥
जो लोग कुरंग=सांसारिक भोग-विलासों में आसक्त हैं वे कभी भी निःसंशयात्मक कथन नहीं करते । वे सदैव उलझे हुए = संशय उत्पन्न करने वाली बातें ही कहते हैं जिनसे साधक भ्रमित हो जाता है ।
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उपनिषदों के अनुसार श्रेय और प्रेय दो मार्ग हैं । यहाँ रंग श्रेय मार्ग के लिये तथा कुरंग प्रेय मार्ग के लिये व्यवहृत हुआ है । बषनांजी कहते हैं जो प्रेय मार्गानुयायी हैं, उनकी संगति करने से भक्ति में भंग पड़ता है । अतः अच्छा है, ऐसों का संग किया ही न जाए ॥२॥
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*सुधबुध जग्यासी कौ अंग ॥*
सुलझ्या बोलै सबद मैं, भगति हेत कै भाइ ।
तिसका पग की पाहणी, बषनां सीस लगाइ ॥३॥
बषनांजी कहते हैं भक्ति की वृद्धि हेतु जो वक्ता, साधु, संतजन निःसंशायात्मक सुलझे हुए स्पष्ट विचार व्यक्त करते हैं उनके विचारों को ही नहीं उनके पैरों की पाहणी=पगरखी = जूती को भी शिर पर रखना चाहिये ।
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कहने का आशय यह है कि ऐसे साधु संतों के विचार तो माननीय और आचरणीय होते ही हैं, उनके द्वारा प्रयुक्त सामग्री भी इतनी पवित्र और श्रेष्ठ होती है कि उनको आदर सहित अंगीकृत करने से वे भी श्रोता में भक्ति का संचार कर देती हैं ॥३॥
इति खेचर कौ अंग संपूर्ण ॥अंग ६२॥साषी ११४॥
(क्रमशः)

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