सोमवार, 22 जनवरी 2024

शब्दस्कन्ध ~ पद #३८८

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #३८८)*
*राग भैरूं ॥२४॥**(गायन समय प्रातः काल)*
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*३८८. मन प्रति शूरातन । धीमाताल*
*रहु रे रहु मन मारूंगा, रती रती कर डारूंगा ॥टेक॥*
*खंड खंड कर नाखूंगा, जहाँ राम तहाँ राखूंगा ॥१॥*
*कह्या न मानै मेरा, सिर भानूंगा तेरा ॥२॥*
*घर में कदे न आवै, बाहर को उठि धावै ॥३॥*
*आतम राम न जानै, मेरा कह्या न मानै ॥४॥*
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हे मन ! तू रुक जा, कुमार्गगामी क्यों हो रहा है । नहीं तो मैं तेरे सैंकड़ों टुकड़े करके तुझे निःसंकल्प कर दूंगा(मार डालूंगा) । मन को निःसंकल्प बना देना ही उसको मारना हैं । वैराग्यादि साधनों से तेरे को संकल्पहीन करके तेरी चंचलता को नष्ट कर दूंगा । क्या तू मेरे भजनबल को नहीं जानता है ।
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मैं भगवान् के भजन द्वारा अनन्त कल्पनाओं से शून्य अष्टदलकमल के मध्य में जहां समधी में प्रभु का दर्शन होता है, वहां पर ले जाकर तुझे स्थिर कर दूंगा । जिससे तू अपनी चंचलता को भूल जायेगा । यदि तू मेरे उपदेश को नहीं मानेगा तो मैं संसार सागर से पार होने के लिये कटिबद्ध होकर जैसे जल के प्रवाह को सेतु के द्वारा रोक दिया जाता है वैसे ही अपने आत्मा में तुझे रोक दूंगा ।
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तू बड़ा दुष्ट है । बाहर के विषयों में घूमता हुआ कभी भी अपनी आत्मा में अन्तर्मुखी नहीं होता और न अपने प्रिय प्रभु को प्राप्त करने के लिये कोई साधन ही करता है । बार-बार मना करने पर भी विषयों में दौड़ता रहता है । एक जगह कहीं भी स्थिर नहीं रहता । इस प्रकार गुरु के बताये हुए मार्ग से शूरवीर साधक जिसका निग्रह बड़ा ही कठोर है, ऐसे मनरूपी ग्राह को रोक लेता है ।
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अतः मन के निग्रह के लिये साधक को यत्न करना चाहिये । योगवासिष्ठ में कहा है कि –
जैसे क्षीरसागर को मन्दराचल से मन्थन करने पर उसके जल में चंचलता के बढ जाने से उस जल का रोकना कठिन है, वैसे ही मन भी विषयों के चिन्तन से विक्षुब्ध हो कर दशों दिशाओं में दौड़ता रहता है ।
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यह मन एक महान् समुद्र है । इसमें दूसरों को ठगने के लिये जो उपाय किये जाते हैं, वे ही क्रूर मगर हैं । कल्लोल के सदृश भोगों की प्राप्ति के लिये जो उत्साह है वे ही इसमें डुबाने के लिये बड़े-बड़े भंवर पड़ रहे हैं । ऐसा यह मन महासागर है । हे ब्रह्मन् मैं इसको रोकने में असमर्थ हूँ ।
(क्रमशः)

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