सोमवार, 22 जनवरी 2024

घट मैं दीसै घोर अंधार

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*मसि कागज के आसरे, क्यों छूटै संसार ?*
*राम बिना छूटै नहीं, दादू भ्रम विकार ॥*
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*धरमहीण मुगध बकता कौ अंग ॥*
कागद मैं जरणा बिचार । कागद माहिं ग्यान उपगार ॥
कागज मैं तत मेल्ह्या पाड़ । कागदि बस्ति पणि घटाँ उजाड़ ॥१॥
आचरण से हीन वाचकीवक्ता के सम्बन्ध में विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं, आत्मानुभवशून्य किन्तु शास्त्रीयज्ञान से पूर्ण वक्ताओं के यहाँ जरणा के विचार = सहनशीलता, पचाने की शक्ति मात्र कागजों पर ही लिखे मिलेंगे, उनके आचरण में इसका लेश भी नहीं मिलेगा ।
इसी प्रकार ज्ञान = जीव और ब्रह्म पृथक् पृथक् नहीं, एक है; ब्रह्म ही सत्य है; तदितर माया और माया जन्य संसार सर्वथा शश श्रृंग की भांति मिथ्या है; तथा परोपकार की बातें मात्र कागजों तक सीमित हैं । आचरण में उनका तनिक भी प्रभाव नहीं है ।
इतना ही नहीं, ऐसे लोगों ने स्थान-स्थान से तत्त्वों की = तत्त्वज्ञान को पाड़ = एकत्रित कर-करके कागजों में ही लिपिबद्ध का रखा है । वस्तुतः इनके यहाँ कागजों में तो बस्ती = अपार ज्ञान है किन्तु इनके घटाँ = घट = अंतकरण में ज्ञान का से सर्वथा उजाड़ = अभाव है ॥१॥
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कागद मांहै सब परसंग । कागद मैं सुमिरण कौ अंग ॥
कागद मांहै जोति अपार । घट मैं दीसै घोर अंधार ॥२॥
शास्त्रीयज्ञान संपन्न पंडितों की पोथियों में ही समस्त शिक्षाप्रद प्रसंग = आख्यान लिखे रहते हैं । पुस्तकों में ही सुमरण का अंग लिखा रहता है । वस्तुतः इन पंडितों में जो भी ज्ञान का प्रकाश है वह पुस्तकाधारित है और पुस्तकों में ही लिखा हुआ है । इनमें अनुभवज्ञान = आत्मा का अपरोक्षज्ञान एकदम शून्य है । इसीकारण इनके अंतःकरण में घोर अंधार = भयंकर अज्ञान का साम्राज्य है ॥२॥
(क्रमशः)

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