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*पारब्रह्म कह्या प्राण सौं, प्राण कह्या घट सोइ ।*
*दादू घट सब सौं कह्या, विष अमृत गुण दोइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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सूरज के सात घोड़े:
आज विज्ञान कहता है कि सूरज की हर किरण प्रिज्म में से निकलकर सात हिस्सों में टूट जाती है, सात रंगों में बंट जाती है। वेद का ऋषि कहता है कि सूरज के सात घोड़े हैं, सात रंग के घोड़े हैं। अब यह पैरेबल की भाषा है। सूरज की किरण सात रंगों में टूटती है, सूरज के सात घोड़े हैं, सात रंग के घोड़े हैं, उन पर सूरज सवार है।
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अब यह कहानी की भाषा है। इसको किसी दिन हमें समझना पड़े कि यह पुराण की भाषा है, यह विज्ञान की भाषा है। लेकिन इन दोनों में गलती क्या है ? इसमें कठिनाई क्या है ? यह ऐसे भी समझी जा सकती है। इसमें कोई अड़चन नहीं है। विज्ञान बहुत पीछे समझ पाता है बहुत सी बातों को।
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असल में, साइकिक फोर्स के आदमी बहुत पहले प्रेडिक्ट कर जाते हैं। लेकिन जब वे प्रेडिक्ट करते हैं तब भाषा नहीं होती। भाषा तो बाद में जब विज्ञान खोजता है तब बनती है; पहले भाषा नहीं होती। अब जैसे कि आप हैरान होंगे, कोई भी गणित है, लैंग्वेज है, कोई भी दिशा में अगर आप खोजबीन करें, तो आप पाएंगे—विज्ञान तो आज आया है, भाषा तो बहुत पहले आई, गणित बहुत पहले आया।
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जिन लोगों ने यह सारी खोजबीन की, जिन्होंने यह सारा हिसाब लगाया, उन्होंने किस हिसाब से लगाया होगा ? उनके पास क्या माध्यम रहे होंगे, उन्होंने कैसे नापा होगा ? उन्होंने कैसे पता लगाया होगा कि एक वर्ष में पृथ्वी सूरज का एक चक्कर लगा लेती है ?
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एक वर्ष में चक्कर लगाती है, उसी हिसाब से वर्ष है। वर्ष तो बहुत पुराना है, विज्ञान के बहुत पहले का है। वर्ष में तीन सौ पैंसठ दिन होते हैं, यह तो विज्ञान के बहुत पहले हमें पता हैं। जब तक किन्हीं ने यह देखा न हो.. .लेकिन देखने का कोई वैज्ञानिक साधन नहीं था। तो सिवाय साइकिक विजन के और कोई उपाय नहीं था।
आचार्य श्री रजनीश
जिन खोजा तिन पाइयाँ १४

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