रविवार, 28 जनवरी 2024

शब्दस्कन्ध ~ पद #३८९

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #३८९)*
*राग भैरूं ॥२४॥**(गायन समय प्रातः काल)*
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*३८९. नाम शूरातन । मकरन्द ताल*
*निर्भय नाम निरंजन लीजे, इन लोगन का भय नहिं कीजे ॥टेक॥*
*सेवक शूर शंक नही मानै, राणा राव रंक कर जानै ॥१॥*
*नाम निशंक मगन मतवाला, राम रसायन पीवै पियाला ॥२॥*
*सहजैं सदा राम रंग राता, पूरण ब्रह्म प्रेम रस माता ॥३॥*
*हरि बलवंत सकल सिर गाजै, दादू सेवक कैसे भाजै ॥४॥*
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श्रीदादूजी महाराज भक्तों के लिये निर्भयता का उपदेश कर रहे हैं । विषयों में आसक्त रहने वाले सांसारिक पुरुषों का भय त्यागकर निर्भय मन से साधक भक्त को निरंजन निराकार परब्रह्म का चिन्ता करना चाहिये, क्योंकि भगवान् का जो भक्त है वह शूरवीर होता है, वह किसी का भी भय नहीं मानता ।
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उसकी दृष्टि में ऐश्वर्य से उन्मत्त राजा और अहंकारी महाराजा तथा कामी धनवान् पुरुष और निर्धन मनुष्य ये सब समान ही होते हैं । वह स्वयं भगवान् के भजन में मस्त रहता है और उस रस को पीकर ब्रह्म में लीन रहता है । ऐसा भक्त किसी से भी भयभीत नहीं होता है । क्योंकि उसकी रक्षा करने वाला अति बलवान् सर्वसमर्थ प्रभु सर्वत्र विराजता हैं । अतः साधक को किसी के भी भय से भजन से विमुख नहीं होना चाहिये ।
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वेदान्तसंदर्भ में मनोनियमन में कहा है कि –
यह उदर दुष्पूर है, इसकी पूर्ति के लिये मानवापराधीन परवश हो जाता है । लेकिन भक्तजन कपूर के समान गौरवर्ण और चन्द्रचूडामणि भगवान् शंकर के अलावा किसी भी धनवान् का आश्रय नहीं लेता । हे मन ! तू उसी भगवान् को भज ।
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जबकि फल पत्ते आदि का भोजन सर्वत्र सुलभ है, और भगवान् भी भक्त की कामना को पूर्ण करने के लिये उसके पास ही रहते हैं । फिर भी मन तू कृपण तथा पशुतुल्य जिसकी सेवा भी करना कठिन है उन मनुष्यों का आश्रय लेता है, तो तुझे धिक्कार है ।
(क्रमशः)

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