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*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*३९. बिनती कौ अंग १२५/१२८*
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मोहि अपनां करि लीजिये, प्रेम सुधारस पाइ ।
कहि जगजीवन रांमजी, सब सुख दीजै आइ ॥१२५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मुझे, हे प्रभु जी प्रेमामृत पिला कर अपना कर सब सुख दीजिए ।
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कहि जगजीवन रांमजी, हम गुनही१ गरगाब२ ।
तुम साहिब समरथ धणीं, क्यूं करि कीजै ज्वाब३ ॥१२६॥
(१. गुनही=अपराधी) (२. गरगाब=गरकाव, सांसारिक भोगों में मग्न)
(३. ज्वाब=जवाब, उत्तर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हम संसारिक भोगों में मग्न हो आपके गुनहगार हैं । आप तो हर तरह से समर्थ है अतः हम आपको कैसे उत्तर दे हम अपराधी है प्रभु ।
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ज्वाब न कीया जाइ छिन, थर थर कांपै देह ।
कहि जगजीवन रांमजी, क्यौं करि जुडै सनेह ॥१२७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि आपको अपने कृत कर्मों का उत्तर कैसे दे ? भय से देह कांपती है । अतः ऐसी स्थिति में आपसे स्नेह जोड़ने की हिम्मत हम अपने अपराधों के कारण नहीं दे सकते ।
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जुड़ै सनेह सनमुख हुयां, जे हरि करौ सहाइ ।
कहि जगजीवन रांमजी, (तो) दोजग४ कदे न जाइ४ ॥१२८॥
(४-४. दोजग कदे न जाइ=नरकपात कभी न हो, पाप कर्म कभी न करे)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि आपके दर्शन से स्नेह उत्पन्न होता है । और दर्शन आपकी सहायता से ही हो सकते हैं अगर ऐसा हो जाये तो जीव कभी नर्कगामी नहीं होता है ।
(क्रमशः)
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