रविवार, 28 जनवरी 2024

सब लिखि मेल्यौ कागद मांहि

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*काजी कजा न जानहीं, कागद हाथ कतेब ।*
*पढतां पढतां दिन गये, भीतर नांहि भेद ॥*
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कागद मांहै ल्यौ का अंग । कागद मैं साधौं का संग ॥
सब लिखि मेल्यौ कागद मांहि । कागद मैं सो घट मैं नाहिं ॥३॥
कागजों में ही ल्यौ = लय = अखंडाकार एकरस अन्तःकरण की वृत्ति का अंग है तो कागजों में ही साधुओं की संगति में निवास, साधुओं का उपदेश* श्रवण करने का अंग है । इन वाचक पंडितों ने सभी कुछ कागजों में ही लिख रखा है ।
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वस्तुतः जो कागजों में लिख रखा है, उसका लेशमात्र भी इनके घट = हृदय में नहीं है । दादूजी महाराज ने जहाँ भी साधु शब्द का* व्यवहार है, वहाँ प्रायः उसका अर्थ ब्रहमनिष्ठ सिद्ध पुरुष है । जिज्ञासु* साधक के लिये उन्होंने प्रायः संत शब्द काम में लिया है ? यहाँ साधुसंग का तात्पर्य ब्रहमनिष्ठ साधुओं के संग से ही है ॥३॥
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मैं साषी सगलीं सुणी, बीचारी मन माहिं ।
कागद मैं जरणा लिखी, पणि घट मैं जरणा नाहिं ॥४॥
मैंने लिखा हुई सारी ही साषियों को सुना है । उन पर चिंतन मनन भी किया है । उनको लिखने वालों ने जरणा से सम्बन्धित साषियाँ कागज पर ही लिखी हैं किन्तु अन्तःकरण में जरणा का लेशमात्र भी नहीं है ॥४॥
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कागद मैं निर्बैरता, सब साख्याँ कौ ढेर ।
पणि हिरदै मांहै बैरता, कोइ बात कहण का फेर ॥५॥
निर्वैरता के अंग की ढेर सारी साषियों में निर्वैरता का उपदेश कूट-कूट कर भरा पड़ा है । वह निर्वैरता का उपदेश कागजों तक ही सीमित है क्योंकि हृदय में तो उसका लेश भी न होकर द्वेष ही द्वेष भरा पड़ा है । वस्तुतः ब्राह्मण/उपदेशक बात कहने में अत्यन्त चतुर है । वह अपनी बात बड़ी ही फेर = चतुराई के साथ कहता है जिससे श्रोता को सुनते समय ऐसा अनुभव होता है जैसे उपदेशक अजातशत्रु ही है ॥५॥
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उपदेस कौ अंग ॥
सौ बाताँ की एक है, सब साधौं की साषि ।
गुरि कागद मैं लिखि दियौ, सो बषनां हिरदै राषि ॥६॥
बषनांजी कहते हैं, सौ बातों की एक ही बात है कि जो कुछ ब्रहमनिष्ठ और श्रोत्रिय गुरुमहाराज ने कागज में लिखकर दे दिया है, उसे ही हृदय में धारण कर लेना चाहिये; कागजों में लिखा हुआ ही न छोड़ देना चाहिये । मैंने (बषनांजी ने) जो ऊपर बात कही है, वह मात्र मेरा परामर्श ही नहीं है, यह सभी ब्रहमनिष्ठ साधु महात्माओं की साक्षी = कथन है ॥६॥

इति करणीहीन बकता कौ अंग ॥अंग ६४॥साषी १२०॥
(क्रमशः)

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