सोमवार, 8 जनवरी 2024

*श्री रज्जबवाणी पद ~ २०१*

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*विरह अग्नि में जालिबा, दरशन के तांईं ।*
*दादू आतुर रोइबा, दूजा कुछ नांहिं ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग जैतश्री १९(गायन समय दिन ३ से ६)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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२०१ विरह-विनय । चौताल
दुखित वंत१ कारण कंत२, परम पीर२ मन अधीर ।
नौसत३ सब भूले चीर४, नैनों नित स्रवत५ नीर, विरह वपु हंत ॥टेक॥
दीरघ दुःख रह्यो छाय, दुसह अति सह्यो न जाय,
कासौं यहु कहूं माय, वैरी मैमंत ।
दशवें कुल को लाग्यो नाग, देखि सखी मेरो भाग,
पिंड प्राण होत त्याग, नाहीं तंत८ मंत९ ॥१॥
बीचों बीच बहुत मार, तन मन शिर बहत धार,
प्यारे पिव बिन पुकार, शूल१० न जिये जंत११ ।
रज्जब धन११ राखि लेहु, नारी को निरख नेहु,
हरी उमंग१३ दर्श देहु, लीजे नहिं अंत ॥२॥१॥
विरह पूर्वक दर्शनार्थ प्रार्थना कर रहे हैं -
✦ मैं अपने स्वामी के दर्शनार्थ अत्यन्त दुखी प्राणी के सामान१ दुखी हूँ । मेरे हृदय में महँ पीड़ा२ है४ मन अधीर हो रहा है । सब साधन रूप सोलह३ श्रृंगार और वस्त्र, धारण करना भी भूल गयी हूँ । प्रति दिन नेत्रों से अश्रु टपकते५ हैं । यह विरह शरीर को नष्ट६ कर रहा है ।
✦ मेरे सब शरीर पर महान दुःख छाया हुआ है और यह अति दुसह है, सहा नहीं जाता है । हे माई ! यह दुःख किससे कहूं ? विरह रूप वैरी बड़ा मदमत्त७ है । देखो तो सही संत-सखी ! मेरे कैसा भाग्य है ? जो यह विरह दशवें कुल का नाग बन कर मुझे काटने लगा है । अब मेरे प्राण पिंड का वियोग हो रहा है । इससे बचने का कोई तन्त्र८ मन्त्र९ भी नहीं है ।
✦ मेरे शरीर के मध्य हृदय-स्थान में बड़ी व्यथा है । मेरे शरीर, मन और शिर पर मानो करवत की धार चल रही हो ऐसा प्रतीत होता है । प्रियतम प्रभु के दर्शन बिना यह पीड़ा१० नहीं जायगी । मैं पुकार के कह रही हूँ । मेरा जीव जारहा११ है । प्रभो ! मुझ नारी का स्नेह देख कर तो अपनी नारी१२ की रक्षा करो । हरे ! प्रसन्न१३ होकर दर्शन दो अब मेरा अंत नहीं लो ।
(क्रमशः)

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