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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू करबे वाले हम नहीं, कहबे को हम शूर ।*
*कहबा हम थैं निकट है, करबा हम थैं दूर ॥*
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एक मुई दूजी पणि मूई, तीजाँ करी खवारी ।
लोगों नै भागौत सुणावैं, आपण यौं झख मारी ॥१०॥
मिश्रजी में कामवासना कितनी प्रबल है, इसका विवेचन करते हुए कहते हैं, पहली पत्नी के मरने पर मिश्रजी ने दूसरा विवाह कर लिया । दूसरी के मरने पर तीसरा विवाह कर लिया । उन्हें न पहली से संतुष्टि हुई न दूसरी पत्नी के रहने तक काम से संतुष्टि हुई ।
अन्ततः उन्होंने तीसरी पत्नी से विवाह रचकर अपनी बर्बादी का दरवाजा खोल लिया । लेकिन विचार उस समय आता है जब मिश्रजी भागवत की कथा सुनाते समय श्रोताओं को काम को नियंत्रित करने का उपदेश देते हैं जबकि स्वयं तीन-तीन विवाह रचाकर झक मारते हैं ॥११॥
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भागवत में स्पष्टतः लिखा है
“न जातुः काम कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ॥”
औराँ नैं तौ ग्यान सिखावे, आप बैरि कै सारै ।
बषनां कहै सुणौं रे संतौ, मिश्र कातरा मारै ॥१२॥
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मिश्रजी पुराण, भागवतादि की कथा कह-कहकर श्रोताओं को ज्ञान का पाठ पढ़ाते हैं कि कामवासना अत्यन्त गर्हित है जबकि स्वयं अपने घर में बैरि = औरत रखते हैं, उसका अमर्यादित रूप में उपभोग करते हैं ।
बषनांजी संतों से कहते हैं, सुनिये मिश्रजी की लीला; स्वयं तो कातरा = जीवहिंसा करते हैं तथा श्रोताओं को अहिंसा का पाठ पढाते हैं । स्वयं काम वासना से आकंठ ग्रसित हैं किन्तु श्रोताओं को शुक्र रक्षण करने का उपदेश सुनाते हैं । कितना वैषम्य है कथनी और करनी में ॥१२॥
(क्रमशः)
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