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*मांहि निरंजन देव है, मांहि सेवा होइ ।*
*मांहि उतारै आरती, दादू सेवक सोइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग धनाश्री २०(गायन समय दिन ३ से ६)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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२०६ पंजाबी त्रिताल
आरती आत्म राम तुम्हारी, तन मन सेवा सौंज१ उतारी ॥टेक॥
दीपक दृष्टि गुरु की दीन्ही, घंटा घट धीरज ध्वनि कीन्ही ॥१॥
ध्यान धूप हित२ को करि हारा, पाती पहुप अठारह भारा ॥२॥
नख शिख चंदन नान्हां३ बांटै, केशर करनी४ सौ हरि छांटै५ ॥३॥
ऐसी विधि उर अंतर सेवा, जन रज्जब क्या जाने भेवा६ ॥४॥२॥
✦ आत्मस्वरूप राम आपकी आरती संतों के तन मन और सेवा भक्ति रूप सामग्री१ से उतारी है ।
✦ गुरु की प्रदान की हुई ज्ञान दृष्टि ही उस सामग्री में दीपक है । शरीर रूप घंटा है, उससे धैर्य रूप ध्वनि करी है,
✦ ध्यानरूप धूप जलाया है, प्रेम२ रूप हार हरि को पहनाया है । अठारह भार वनस्पति रूप तुलसी पत्र और पुष्प चढाये हैं ।
✦ नख शिख तक शरीर का व्यवहार संयम द्वारा सूक्ष्म३ बनाना ही चन्दन घिसा है और उसमें कर्तव्य४ कर्म रूप केशर डालके हरि के लगाते५ हैं ।
✦ इस प्रकार हृदय के भीतर ही संतों की सेवा पूजा होती है । मैं उसका रहस्य६ क्या जान सकता हूं ।
(क्रमशः)
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