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*निकटि निरंजन लाग रहु, जब लग अलख अभेव ।*
*दादू पीवै राम रस, निहकामी निज सेव ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ साधू का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(५)भक्तों के साथ प्रेमानन्द में*
ये सब बातें हो रही थीं कि श्रीरामकृष्ण को देखने के लिए डाक्टर आ पहुँचे और आसन ग्रहण किया । वे कह रहे हैं, 'कल रात तीन बजे से मेरी आँख नहीं लगी । बस तुम्हारी ही चिन्ता थी कि कहीं ऐसा न हो कि सर्दी लग जाय । और भी मैं बहुत कुछ सोच रहा था ।
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श्रीरामकृष्ण - खाँसी हुई है, गले में भी सूजन है । सबेरे तड़के मुँह में पानी आ गया था । मेरा पूरा शरीर टूट रहा है ।
डाक्टर - सुबह को सब खबर मुझे मिली है ।
महिमाचरण अपने भारतवर्ष-भ्रमण की चर्चा कर रहे हैं । कहा, 'लंकाद्वीप में हँसता हुआ आदमी नहीं दीख पड़ता । डाक्टर सरकार ने कहा, 'हाँ होगा, परन्तु इसकी खोज होनी चाहिए ।' (सब हँसते हैं) डाक्टरी कार्य की बातचीत होने लगी ।
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श्रीरामकृष्ण (डाक्टर से) - बहुतों का यह ख्याल है कि डाक्टरी का स्थान अन्य कार्यों से बहुत ऊँचा है । यदि रुपया न लेकर, दूसरे का दुःख देखकर कोई चिकित्सा करे तब तो वह महान् व्यक्ति है, उसका कार्य भी महत्वपूर्ण है, नहीं तो जो लोग रुपया लेकर यह सब काम करते हैं, वे तो निर्दय हैं, और निर्दय होते जाते हैं । व्यवसाय की दृष्टि से मल-मूत्र देखना तो नीचों का काम है ।
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डाक्टर - महाराज, आप बिलकुल ठीक कहते हैं । डाक्टर के लिए उस भाव से काम करना तो सचमुच बहुत बुरा है । परन्तु आपके सम्मुख मैं अपने ही मुँह से क्या कहूँ –
श्रीरामकृष्ण - हाँ, डाक्टरी में निःस्वार्थ भाव से अगर दूसरे का उपकार किया जाय, तब तो बहुत अच्छा है ।
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“चाहे जो काम आदमी करे, संसारी मनुष्य के लिए बीच-बीच में साधुसंग की बड़ी आवश्यकता है । ईश्वर में भक्ति रहने पर लोग साधुसंग आप खोज लेते हैं । मैं उपमा दिया करता हूँ – गँजेड़ी गँजेड़ी के साथ ही रहता है । दूसरे आदमी को देखता है तो वह सिर झुकाकर चला जाता है या छिप रहता है; परन्तु एक दूसरे गँजेड़ी को देखकर उसे परम प्रसन्नता होती है । कभी तो मारे प्रेम के दोनों गले लग जाते हैं । (सब हँसते हैं) और, गीध भी गीध ही के साथ रहता है ।”
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डाक्टर - परन्तु कौए के डर से ही गीध भाग जाता है । मैं कहता हूँ, सिर्फ मनुष्य की ही नहीं, सब जीवों की सेवा करनी चाहिए । मैं प्रायः गौरैयों को आटे की गोलियाँ दिया करता हूँ । और छत पर हजारों गौरैयाँ इकट्ठी हो जाती हैं ।
श्रीरामकृष्ण – वाह ! यह तो बड़ी अच्छी बात है । जीवों को खिलाना तो साधुओं का काम है । साधु-महात्मा चीटियों को शक्कर देते हैं ।
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डाक्टर - आज गाना नहीं होगा ?
श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्र से) - कुछ गाओ ।
नरेन्द्र गा रहे हैं, हाथ में तानपूरा लिए हुए । आज बाजा भी बज रहा है ।
गाना - हे दीनों के शरण ! तुम्हारा नाम बड़ा सुन्दर है । ऐ प्राणों में रमण करनेवाले ! अमृत की धारा बरस रही है, कर्ण शीतल बन जाते हैं...।
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नरेन्द्र फिर गा रहे हैं –
गाना - माँ ! मुझे पागल कर दे, ज्ञान और विचार की अब कोई आवश्यकता नहीं है .... ।
गाने के साथ ही इधर अद्भुत दृश्य दिखायी देने लगा - भावावेश में सब लोग पागल हो रहे हैं । पण्डित अपने पाण्डित्य का अभिमान छोड़कर खड़े हो गये । कह रहे हैं - 'माँ, मुझे पागल कर दे, ज्ञान और विचार की अब कोई आवश्यकता नहीं है ।'
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सब से पहले आसन छोड़कर भावावेश में विजय खड़े हुए, फिर श्रीरामकृष्ण । श्रीरामकृष्ण देह की कठिन असाध्य व्याधि को बिलकुल भूल गये हैं । सामने डाक्टर हैं । वे भी खड़े हो गये । न रोगी को होश है, न डाक्टर को । छोटे नरेन्द्र और लाटू दोनों को भावसमाधि हो गयी ।
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डाक्टर ने साइन्स (विज्ञान) पढ़ी है, परन्तु यह विचित्र अवस्था देखते हुए अवाक् हो रहे हैं । देखा, जिन्हें भावावेश है उनमें बाह्यज्ञान बिलकुल नहीं रह गया । सब के सब स्थिर और निःस्पन्द हो रहे हैं । भाव का उपशम होने पर कोई हँस रहे हैं, कोई रो रहे हैं, मानो कुछ मतवाले इकट्ठे हो गये हों ।
(क्रमशः)
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