गुरुवार, 4 जनवरी 2024

*श्री रज्जबवाणी पद ~ १९९*

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*दादू सबै दिशा सो सारिखा, सबै दिशा मुख बैन ।*
*सबै दिशा श्रवणहुँ सुने, सबै दिशा कर नैन ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग नट नारायण १८(गायन समय रात्रि ९-१२)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१९९ प्रभु परिचय । त्रिताल
प्रभु मेरो पूरण है सर्वंग,
सेवक के संदेह दमन१ दुख, दिखरावत रुचि२ रंग३ ॥टेक॥
चरण चिंततों चित्तव४ चरण में, सुरति९ किये सर्व शीश ।
श्रवण नैन नासिक मुख रसना, जितहिं तितहिं जगदीश ॥१॥
भुज भाव हिं भगवंत भुजा भरि, उर रूपी वह अंग५ ।
पेट पीठ पहचान सु पावत, निकट सु न्यारे नंग६ ॥२॥
नर के नेह नखस७ नख शिख करि, नाहिं सु नजरि दिखाये ।
जैसे शीतकोट शून्य८ स्थल, रज्जब पेखिन पाये ॥३॥७॥
अपने प्रभु का परिचय दे रहे हैं -
✦ मेरे प्रभु सर्वत्र परिपूर्ण हैं, सब उन्हीं के अंग हैं इससे उनका नाम सर्वंग है । वे सेवक के संशय और दु:ख को नष्ट१ करके प्रेम३ पूर्वक दर्शन की इच्छा२ करने वाले को अपना स्वरूप दिखाते हैं
✦ उनके चरणों का चिंतन करने से उनके चरणों में जाकर उन्हें देखता४ है उनका स्मरण९ करने से वे सर्व शिरोमणी बना देते हैं । उन जगदीश्वर के जहाँ तहाँ सर्वत्र ही श्रवण, नेत्र, नासिक, मुख और रसना है ।
✦ भाव रूप भुजा उनकी ओर बढाने से वे भगवान भुजाओं में भरके मिलते हैं अर्थात अपना लेते हैं । वे प्रिय५ प्रभु मेरे हृदय रूप ही हैं उनको पहचानने पर वे पेट ओर पीठ अर्थात आगे पिछे सर्वत्र ही प्राप्त होते हैं वे सबके निकट हैं, सबसे अलग हैं, उनका न+अंग६ अर्थात स्वरूप छिपा हुआ है । अज्ञानियों को नहीं भासता ।
✦ नर के प्रेम से उसके नख से शिखा तक शरीर के व्याप्त करके दीवाल में चित्र७ के समान रहते हैं किंतु चर्म चक्षुओं से उसे नहीं दिखाई देते । जैसै गंधर्व नगर को आकाश८रूप स्थान में देखते हैं किंतु उसे हाथ से नहीं पकड़ सकते, वैसे ही परब्रह्म को ज्ञानी ज्ञान नेत्रों से देखते हैं किंतु हाथ से नहीं पकड़ सकते ।
(क्रमशः)

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