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*संत उतारैं आरती, तन मन मंगलचार ।*
*दादू बलि बलि वारणैं, तुम पर सिरजनहार ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग धनाश्री २०(गायन समय दिन ३ से ६)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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२०७ त्रिताल
आरती अविगत१ नाथ तुम्हारी,
कर कहा जाने सुरति हमारी ॥टेक॥
अपने पाट२ प्रभु आप विराजैं,
सेवक उर आसन कहा साजैं ॥१॥
पहुप पान अंग३ अंग४ न मावैं५,
हम कहा पाती प्रीति चढावैं ॥२॥
ज्योति प्रकाश सकल उजियारा,
ज्ञान अग्नि का दीपक जारा ॥३॥
शून्य६ सरोवर सलिल अनंता,
काया कुंभ कहा भरे संता ॥४॥
अह निशि अनहद गोप्य७ सु गाजै,
घंटा चामोधर८ कहा बाजै ॥५॥
सकल सौंज९ सांई कन१० साँची,
रज्जब आरती कर हिं सु काची ॥६॥३॥
✦ मन इन्द्रियों के अविषय१ प्रभो ! हमारी वृत्ति आपकी आरती क्या कर जानती है ? अर्थात नहीं कर जानती ।
✦ प्रभो ! आप तो अपनी महिमा रूप सिंहासन२ पर विराजते हैं, फिर सेवक अपने हृदय में क्या आसन सजायेगा ?
✦ हे प्रिय३ ! पुष्प और तुलसी पत्र भी आपके स्वरूप४ में स्थूल होने से नहीं समाते५, तब हम प्रेम से क्या तुलसी पत्र चढावें ?
✦ आपकी ज्ञान ज्योति के प्रकाश से सब विश्व में प्रकाश हो रहा है इससे हमने भी ज्ञानाग्नि का ही दीपक हृदय में जलाया है, घृत दीपक आपके योग्य कहां है ?
✦ ब्रह्मरन्ध्र६ के पास सोम चक्र में अमृत सरोवर है उससे अनन्त जल नीचे शरीर में आता ही रहता है । इसलिये संत जल का कलश आपकी सेवा के लिये क्या भरेंगे ?
✦ दिन रात अनाहत ध्वनि रूप गुप्त७ बाजे बजते रहते हैं, तब घंटा और नगारा८ क्या बजायेंगे ?
✦ प्रभु के पास१० सेवा की सभी सामग्री सच्ची९ है हम तो आरती करते हैं वह तो कच्ची है ।
(क्रमशः)
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