शनिवार, 20 जनवरी 2024

शब्दस्कन्ध ~ पद #३८७

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #३८७)*
*राग भैरूं ॥२४॥**(गायन समय प्रातः काल)*
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*३८७. उपदेश । धीमाताल*
*मन मैला मन ही सौं धोइ, उनमनि लागै निर्मल होइ ॥टेक॥*
*मन ही उपजै विषय विकार, मन ही निर्मल त्रिभुवन सार ॥१॥*
*मन ही दुविधा नाना भेद, मन ही समझै द्वै पख छेद ॥२॥*
*मन ही चंचल चहुँ दिशि जाइ, मन ही निश्‍चल रह्या समाइ ॥३॥*
*मन ही उपजै अग्नि शरीर, मन ही शीतल निर्मल नीर ॥४॥*
*मन उपदेश मनही समझाइ, दादू यहु मन उनमनि लाइ ॥५॥*
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पापों से दूषित मन निष्काम कर्म के द्वारा शुद्ध होकर निर्मल बन जाता है । जैसे जल से उत्पन्न हुए कीचड़ को शुद्ध जल के द्वारा धोने पर कीचड़ दूर हो जाता है । शुद्ध मन से ही समाधि होती है । समाधि में स्थित शुद्ध मन को ही निर्मल मन कहते हैं ।
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विशुद्ध मन में ही तत्त्वज्ञान उत्पन्न होता हैं । भेदवादियों के संग से नाना भेद पैदा हो जाते हैं और अद्वैतवादिज्ञानियों के संग से भेदनिवृत्त होकर अभेद ज्ञान होता है । विषयों के ध्यान से मन चंचल होकर विषयों में आसक्त हो जाता हैं और भगवान् के ध्यान से चंचल मन भी निश्चल होकर भगवद्रूप हो जाता हैं ।
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वाद-विवाद में पक्ष विशेष का आश्रय लेने से क्रोध पैदा होता है । मन के अनुकूल विषय की प्राप्ति होने से जल के समान शीतल शान्ति प्राप्त होती है । अतः अपने मन को समझाना चाहिये । समाधिस्थ मन से ब्रह्म साक्षात्कार पैदा होता है ।
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भागवत में लिखा है कि –
जो पुरुष निरन्तर विषयों का चिन्तन किया करता है उसका चित्त विषयों में फंस सकता है । जो भगवान् का चिन्तन करता है उसका मन भगवान् में लीन हो जाता है । मेरे अतिरिक्त और कुछ है नहीं, जो कुछ भी जान पड़ता है, वह वैसा ही है जैसे स्वप्न में मनोरथ का राज्य हो । अतः तुम मेरे चिन्तन से अपना चित्त शुद्ध कर लो और उसे पूरी तरह से मुझमें एकाग्र कर दो ।
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गीता में –
विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है । आसक्ति से कामना पैदा हो जाती है और कामनाओं की पूर्ति में बाधा उत्पन्न होने पर क्रोध पैदा हो जाता है ।
(क्रमशः)

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