गुरुवार, 18 जनवरी 2024

*३९. बिनती कौ अंग ११७/१२०*

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*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*३९. बिनती कौ अंग ११७/१२०*
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कहि जगजीवन रांमजी, हाडडियां४ रंग लाग ।
तुचा५ तुम्हारा नांम मंहि, नख सिख धोये दाग६ ॥११७॥
{४.हाडडियां=हड्डियों(अस्थियों) में} {५. तुचा=त्वचा (चर्म)}
(६. दाग=कलंक)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि आपकी भक्ति का रंग हमारी हड्डियों तक चढ जाये । और त्वचा आपके नाम के साबुन से अपने सारे विकार रुपी दाग धो ले ।
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कहि जगजीवन रांमजी, हृदै बिराजौ आइ ।
सुध७ करौ मन आतमां, दुरमति८ दूर नसाइ ।११८॥
{७. सुध=शुद्ध (पवित्र)} {८. दुरमति=दुर्बुद्धि (कुमति)}
संतजगजीवन जी विनय कर कह रहे हैं कि हे दादू तन मन लाइ कर, सेवा दृढ़ कर लेइ । ऐसा समर्थ राम है, जे मांगै सो देइ ॥ प्रभु हमारी आत्मा शुद्ध करके दुर्मति हमसे दूर करके हमारे मन में बसो ।
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कहि जगजीवन रांमजी, यही बीनती नाथ ।
तुम बिन प्रांण अनाथ हैं, सौ हरि करौ सनाथ ॥११९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु दास की यह विनती है कि आपके बिना हम अनाथ हैं आप आकर हमें सनाथ कीजिये, शरण दीजिये ।
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कहि जगजीवन रांमजी, जन९ का गहिये हाथ१० ।
जुग जुग जीवौं जस करौं, सुखी रहौं तुम साथ ॥१२०॥
(९. जन=भक्त) {१०. हाथ=बाहु (बांह)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु जी आप इस जन का हाथ थामें अपनी निगाह में रखें । हम युग युग तक जब तक जीयेंगे आपकी महिमा करेंगे ।
(क्रमशः)

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