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*प्रेम प्रीति कर नीका राखै,*
*बारम्बार सहज नर भाषै ॥*
*मुख हिरदै सो सहज संभारै,*
*तिहि तत रहणा कदे न विसारै ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ पद्यांश. २६९)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*परिच्छेद १२६~भक्ति, विवेक-वैराग्य तथा पाण्डित्य*
*(१)श्रीरामकृष्ण तथा शिष्य-प्रेम*
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आज आश्विन की कृष्ण तृतीया है, सोमवार, २६ अक्टूबर १८८५ । श्रीरामकृष्णदेव की चिकित्सा डाक्टर सरकार उसी श्यामपुकुर के घर में कर रहे हैं । रोज आते हैं । आदमी भी संवाद लेकर रोज जाता है । शरद ऋतु है । कुछ दिन हुए, शारदीय पूजा हो गयी है ।
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श्रीरामकृष्ण की शिष्यमण्डली को हर्ष और विषाद में वह समय बिताना पड़ा था । श्रीरामकृष्ण की पीड़ा तीव्र है । डाक्टर सरकार ने सूचित किया है कि रोग असाध्य है । शिष्यों को तब से हार्दिक दुःख है । वे सदा ही चिन्तित और व्याकुल रहा करते हैं ।
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कुमार-अवस्था से ही वैराग्ययुक्त उनके नरेन्द्र आदि शिष्यगण अभी कामिनी और कांचन के त्याग की शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं । इतनी पीड़ा है फिर भी दल के दल आदमी श्रीरामकृष्ण के पास आते रहते हैं । उनके पास आते ही उन्हें आनन्द मिलता है । वे समागत मनुष्यों की मंगल-कामना करते हुए, अपनी असाध्य व्याधि को भूलकर उन्हें शिक्षा और उपदेश देते हैं ।
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डाक्टरों ने, विशेषतः डाक्टर सरकार ने, बातचीत करने के लिए मना कर दिया है । परन्तु डाक्टर सरकार खुद छः-सात घण्टे तक रहते हैं । वे कहते हैं, 'किसी दूसरे के साथ बातचीत नहीं करने पाओगे, बस हमारे साथ किया करो ।'
श्रीरामकृष्ण की बातें सुनते-सुनते डाक्टर एकदम मुग्ध हो जाते हैं । इसीलिए वे इतनी देर तक बैठे रहते हैं ।
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श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - बीमारी बहुत कुछ अच्छी-सी हो गयी है, इस समय तबीयत खूब अच्छी है । अच्छा, तो क्या दवा से ऐसा हुआ है ? तो इसी दवा का सेवन क्यों न किया जाय ?
मास्टर - मैं डाक्टर के पास जा रहा हूँ, उनसे सब हाल कह दूँगा । वे जो कुछ अच्छा सोचेंगे, कहेंगे ।
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श्रीरामकृष्ण - देखो, दो-तीन दिन से पूर्ण नहीं आया । मन में न जाने कैसा हो रहा है ।
मास्टर – कालीबाबू, तुम जाओ न जरा पूर्ण को बुलाने ।
काली - अभी जाता हूँ ।
पूर्ण की उम्र १४-१५ साल की होगी ।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - डाक्टर का लड़का अच्छा है । जरा एक बार आने के लिए कहना ।
(क्रमशः)

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