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*कर्त्ता ह्वै कर कुछ करै, उस मांहि बँधावै ।*
*दादू उसको पूछिये, उत्तर नहीं आवै ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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डाक्टर - (श्रीरामकृष्ण से) - आप क्या कहते हैं ? ईश्वर की इच्छा ?
श्रीरामकृष्ण - और नहीं तो क्या कह रहा हूँ ? ईश्वरीय शक्ति के निकट मनुष्य क्या कर सकता है ? कुरुक्षेत्र में अर्जुन ने कहा, 'लड़ाई मुझसे न होगी, अपने ही भाइयों का वध मैं न कर सकूँगा ।'
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श्रीकृष्ण ने कहा, 'अर्जुन, तुम्हें लड़ना ही होगा । तुम्हारा स्वभाव तुमसे युद्ध करायेगा ।' श्रीकृष्ण ने सब दिखला दिया कि ये सब आदमी मरे हुए हैं । ठाकुरबाड़ी में कुछ सिक्ख आये थे । उनके मत से पीपल का पत्ता भी ईश्वर की इच्छा से डोलता है - बिना उनकी इच्छा के पीपल का पत्ता तक नहीं डोल सकता ।
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डाक्टर - यदि ईश्वर की ही सब इच्छा है तो आप बातचीत क्यों करते हैं ? लोगों को ज्ञान देने के लिए इतनी बातें क्यों कहते हैं ?
श्रीरामकृष्ण - कहलवाते हैं, इसलिए कहता हूँ । मैं यन्त्र हूँ, वे यन्त्री हैं ।
डाक्टर - आप अपने को यन्त्र कह रहे हैं । यह ठीक है । या चुप ही रहिये, क्योंकि सब कुछ तो ईश्वर ही हैं ।
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गिरीश (डाक्टर के प्रति) - महाशय, आप कुछ भी सोचें, परन्तु वे कराते हैं इसीलिए हम लोग करते हैं । क्या उस सर्वशक्तिमान ईश्वर की इच्छा के प्रतिकूल कोई एक पग भी चल सकता है ?
डाक्टर - स्वाधीन इच्छा भी तो उन्होंने दी है । मैं यदि चाहूँ तो ईश्वर-चिन्ता कर भी सकता हूँ, और न चाहूँ तो नहीं भी कर सकता ।
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गिरीश - आप ईश्वर की चिन्ता या सत्कर्म इसलिए करते हैं कि वह आपको अच्छा लगता है । अतएव वह कर्म आप स्वयं नहीं करते, वह अच्छा लगना ही आपसे करवाता है ।
डाक्टर - क्यों, मैं कर्तव्य समझकर करता हूँ –
गिरीश - वह भी इसलिए कि मन कर्तव्य कर्म करना पसन्द करता है –
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डाक्टर - सोचो कि एक लड़का जला जा रहा है । उसे बचाने के लिए जाना कर्तव्य के विचार से ही तो होता है ।
गिरीश - बच्चे को बचाते हुए आपको आनन्द मिलता है, इसलिए आप आग में कूद पड़ते हैं, आनन्द आपको खींच ले जाता है । मिठाई का मजा लेने के लिए जैसे पहले अफीम खाना । (सब हँसते हैं ।)
(क्रमशः)
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