🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🌷 *#श्रीरामकृष्ण०वचनामृत* 🌷
*https://www.facebook.com/DADUVANI*
*दादू जुवा खेले जाणराइ, ताको लखै न कोइ ।*
*सब जग बैठा जीत कर, काहू लिप्त न होइ ॥*
===============
साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
.
श्रीरामकृष्ण - कर्म करने के पहले उस पर विश्वास चाहिए, उसके साथ वस्तु की याद करने पर आनन्द होता है, तभी काम करने में उस आदमी की प्रवृत्ति होती है । मिट्टी के नीचे एक घड़े में अशर्फियाँ भरी हैं, यह ज्ञान - यह विश्वास पहले होना चाहिए । घड़े को सोचने से ही आनन्द मिलता है - फिर खोदा जाता है ।
.
खोदते हुए घड़े में कुदाल के लगने पर जब ठनकार होती है, तब आनन्द और भी बढ जाता है । फिर जब घड़े की कोर दीख पड़ती है तब आनन्द और बढ़ता है । इसी तरह आनन्द बढ़ता ही जाता है । मैंने स्वयं ठाकुरबाड़ी के बरामदे में खड़े होकर देखा है - साधुओं ने गाँजा मलकर तैयार किया कि चिलम पर चढ़ाते चढ़ाते उनका आनन्द उमड़ने लगा ।
.
डाक्टर - परन्तु आग गरमी भी पहुँचाती है और प्रकाश भी । प्रकाश से पदार्थ दीख तो पड़ते हैं, परन्तु गरमी देह को जलाती है । कर्तव्य करते हुए आनन्द ही आनन्द मिलता हो सो बात नहीं, कष्ट भी होता है ।
मास्टर (गिरीश से) - पेट में दाना पड़ता है तो मार सहने के लिए पीठ भी मजबूत रहती है । कष्ट में भी आनन्द है ।
.
गिरीश - (डाक्टर से) - कर्तव्य रूखा है ।
डाक्टर – क्यों ?
गिरीश - तो सरस सही ! (सब हँसते हैं)
मास्टर - फिर हम उसी बात पर आ गये - मिठाई के लाभ से अफीम खाना !
गिरीश - (डाक्टर से) - कर्तव्य सरस है, अन्यथा आप वह करते क्यों हैं ?
डाक्टर - मन की गति उसी ओर है ।
.
मास्टर - (गिरीश से) - अभागा स्वभाव खींचता है । (हास्य) अगर एक ही ओर मन का झुकाव रहा तो स्वाधीन इच्छा फिर कहाँ रही ?
डाक्टर - मैं बिलकुल स्वाधीन नहीं कहता । गौ खूँटी से बँधी है, रस्सी की पहुँच जहाँ तक है, वहीं तक स्वाधीन है । परन्तु जहाँ उसे रस्सी का खिंचाव लगा तो –
.
श्रीरामकृष्ण - यह उपमा यदु मल्लिक ने भी दी थी । (छोटे नरेन्द्र से) क्या यह अंग्रेजी में है ?
(डाक्टर से) - "देखो, ईश्वर ही सब कुछ कर रहे हैं । ‘वे यन्त्री हैं, मैं यन्त्र हूँ’, अगर किसी में यह विश्वास आ जाय, तब तो वह जीवन्मुक्त हो गया । 'हे ईश्वर, अपना काम तुम खुद करते हो, परन्तु लोग कहते हैं मैं करता हूँ ।'
.
यह किस तरह, जानते हो ? वेदान्त में एक उपमा है, - एक हण्डी में तुमने चावल चढ़ाये, आलू और भटे उसमें छोड़ दिये । कुछ देर बाद आलू, भटे और चावल उछलने लगते हैं, मानो अभिमान कर रहे हों कि 'मैं उछलता हूँ - मैं कूदता हूँ ।' छोटे बच्चे आलू और परवरों को उछलते हुए देखकर उन्हें जीवित समझ लेते हैं ।
.
किन्तु जो जानते हैं वे समझा देते हैं कि आलू, भटे और परवरों में जान नहीं है, वे खुद नहीं उछल रहे; हण्डी के नीचे आग जल रही है, इसलिए वे उछल रहे हैं; अगर लकड़ी निकाल ली जाय, तो फिर वे नहीं हिलते । उसी तरह जीवों का यह अभिमान कि 'मैं कर्ता हूँ', अज्ञान से होता है । ईश्वर की ही शक्ति से सब में शक्ति है । जलती हुई लकड़ी निकाल लेने पर सब चुप हैं !
.
कठपुतलियाँ बाजीगर के हाथ से खूब नाचती हैं; किन्तु हाथ से छोड़ देने पर वे हिलती-डुलती तक नहीं ! "जब तक ईश्वर के दर्शन न हो, जब तक उस पारसमणि का स्पर्श न किया जाय, तब तक; ‘मैं कर्ता हूँ’ यह भ्रम रहेगा ही ‘मैं सत् कार्य कर रहा हूँ, मै असत् कर्म कर रहा हूँ’, इस तरह की भूले होंगी ही ।
.
यह भेद-बोध उन्हीं की माया है; और इस मिथ्या संसार को चलाने के लिए इस माया का प्रयोजन है । किन्तु विद्यामाया का आश्रय लेने पर सत्-मार्ग को पकड़ लेने पर लोग उन्हें प्राप्त कर सकते हैं । जो ईश्वर को प्राप्त कर लेता है, जो उनके दर्शन करता है वही माया को पार कर सकता है । ‘वे ही एकमात्र कर्ता हैं, में अकर्ता हूँ’ यह विश्वास जिसे है, वहीं जीवन्मुक्त है । यह बात मैंने केशव सेन से कही थी ।"
.
गिरीश - (डाक्टर से) - स्वाधीन इच्छा का ज्ञान आपको कैसे हुआ ?
डाक्टर - यह युक्ति के द्वारा नहीं जानी गयी - मैं इसका अनुभव कर रहा हूँ ।
गिरीश - हम तथा दूसरे लोग बिलकुल इसके विपरीत भाव का अनुभव करते हैं, अर्थात् यह कि हम परतन्त्र हैं । (सब हँसते हैं)
.
डाक्टर - कर्तव्य में दो बाते हैं । एक तो कर्तव्य के विचार से उसे करने के लिए जाना, और दूसरा बाद में आनन्द का होना । परन्तु आरम्भिक अवस्था में ही आनन्द होगा यह सोचकर हम कर्म करने नहीं जाते । मुझे स्मरण है कि जब मैं छोटा था तब भोग की मिठाई में चीटियों को देखकर पुरोहित महाराज को बड़ी चिन्ता हो जाती थी । उन्हें पहले से ही मिठाइयों को देखकर आनन्द नहीं होता था । (हास्य) पहले तो उन्हें चिन्ता ही होती थी ।
.
मास्टर - (स्वगत) - बाद में आनन्द मिलता है या साथ-साथ, यह कहना कठिन है । आनन्द के बल से यदि कार्य होता रहा तो स्वाधीन इच्छा फिर कहाँ रह गयी ?
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें