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*दया करै तब अंग लगावै, भक्ति अखंडित देवै ।*
*दादू दर्शन आप अकेला, दूजा हरि सब लेवै ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*प्रतापरुद्र गजपतिजी की पद्य टीका*
*इन्दव-*
*रुद्रप्रताप कह्यो गजपत्ति हि,*
*भक्ति लिई प्रभु तो हु न देखै ।*
*कोटि उपाय कर ले संन्यास हु,*
*हो अकुलात किहूं मम पेखै ॥*
*नृत्य करै जगनाथ रथै मुख,*
*पाय पश्यो नृप भाग्य विशेखै ।*
*लाय लियो उर प्रेम बुड़े सर,*
*भाव भयो दुख देत निमेखै ॥३७७॥*
*॥ श्रीमध्वाचार्य के सम्प्रदाय का वर्णन पूरा हुआ ॥*
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प्रतापरुद्रजी गजपति नीलाचल पुरुषोत्तम पुरी के राजा थे । महाप्रभु कृष्ण चैतन्य ने भक्ति करने को कहा तब महाप्रभु से भक्ति भाव पूर्वक मंत्र ग्रहण कर के शिष्य हो गये थे । भक्ति ग्रहण करने पर भी महाप्रभु ने इनकी प्रेम परीक्षा लेने के लिये कुछ दिन इनकी ओर देखना छोड़ दिया था ।
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आपने महाप्रभु को प्रसन्न करने के लिये कोटि उपाय किये; किन्तु महाप्रभु ने इनकी ओर नहीं देखा । तब संन्यासी का भेष धारण किया और महाप्रभु मेरी ओर कृपा दृष्टि से कैसे देखें, इसके लिये इनका हृदय अत्यन्त व्याकुल होने लगा ।
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एक दिन प्रभु-प्रेम से मत्त हुये महाप्रभुजी जगन्नाथजी के रथ के आगे नृत्य कर रहे थे । तब राजा ने अपना विशेष रूप से भाग्योदय समझ कर तथा प्रेम से व्याकुल होकर साष्टांग दंडवत करते हुये महाप्रभु के चरण पकड़ लिये ।
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महाप्रभु ने राजा का सच्चा प्रेम देखकर उठाया और छाती से लगा, प्रेमानन्द के समुद्र में निमग्न कर दिया । राजा का मनोरथ पूर्ण हो गया । हरि और गुरु, वियोग का दुःख किंचित काल ही देकर पीछे सदा के लिये अखंडानन्द ही प्रदान करते हैं ।
(क्रमशः)
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