गुरुवार, 11 जनवरी 2024

*श्री रज्जबवाणी पद ~ २०२*

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*सीप सुधा रस ले रहै, पीवै न खारा नीर ।*
*मांहैं मोती नीपजै, दादू बंद शरीर ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग जैतश्री १९(गायन समय दिन ३ से ६)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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२०२ अनन्यता । चौताल
पिय के प्रेम बाँध्यो नेम,
अवनि नीर नाहिं सीर१, दह२ दिशि पानी गंभीर,
पीवे नहीं ताल तीर, चित चातक जेम३ ॥टेक॥
अंतरि गत यहु विचार, परसे४ नहिं जग विकार,
सुमिरे हरि बारंबार, मन माने मति येम५ ।
अंबुज६ ज्यों अंबु७ थान, मन मयंक रहै आन८,
करै हो सुधा सु पान, तन मन मति तेम९ ॥१॥
सीप ज्यों समुद्र वास, वारि बूंद सौं निराश,
एक स्वाति सुरति प्यास, उर बोले नहिं हेम१० ।
रज्जब धन११ धन्य भाव, वरत१२ बंध चित्त चाव,
मंगल मन मध्य गाव, सकल कुशल क्षेम ॥२॥२॥
अपनी अनन्यता प्रकट कर रहे हैं -
✦ प्रियतम प्रभु के प्रेम में मन ऐसे नियम पूर्वक बंधा है, जैसे३ स्वाति बिन्दु से चातक का चित्त बँधा रहता है । चातक पक्षी पृथ्वी पर पड़े हुये जल में साझा१ नहीं करता, दशों२ दिशाओं में ही गहरे जल के जलाशय भरे रहते हैं, किंतु वह किसी तालाब के तट पर जाकर नहीं पीता ।
✦ हमारे हृदय के भीतर भी यही विचार है, हमारा हृदय जगत् के विकारों को नहीं छूता४, बारं बार हरि का स्मरण करता है, मन और बुद्धि भी ऐसे५ ही संतोष मानते हैं । जैसे कमल६ जल७ के स्थान में रहता है किंतु उसका मन चन्द्र रूप अन्य८ स्थान में रहकर अमृत पान करता है, ऐसे९ ही हमारा शरीर तो संसार में रहता है किंतु मन बुद्धि प्रभु में रहते हैं ।
✦ जैसे सीप समुद्र में रहती है किंतु समुद्र के जल तथा जल बिन्दुओं की आशा नहीं करती । उसे एक स्वाति बिन्दु की ही प्यास रहती है । वैसे ही हमारी वृति को हरि की ही अभिलाषा रहती है । हमारा हृदय कभी भी सुवर्ण१० आदि सांसारिक पदार्थो की प्राप्ति के लिये नहीं बोलता है । हमारी बुद्धि सुन्दरी११ का भाव धन्यवाद के के योग्य है । यह अनन्यतारूप व्रत१२ में बँधी हुई है, इस अनन्यता से चित्त में उत्साह रहता है मन में मंगल गीतों का गायन होता रहता है । सब प्रकार आनन्द मंगल ही रहता है ।
(क्रमशः)

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