सोमवार, 29 जनवरी 2024

*३९. बिनती कौ अंग १२९/१३२*

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*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*३९. बिनती कौ अंग १२९/१३२*
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दोजग कदे न जाइ तन, जे हरि राखहु संग ।
कहि जगजीवन रांमजी, कबहुं न होवै भंग ॥१२९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु यदि आप अपना सानिध्य दें तो ये जीव कभी नर्क में ना जायेंगे और यह क्रम कभी भी भंग नहीं होगा ।
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सीस तुम्हारे पांव हरि, दोउ कर जोड़ि नवाइ ।
कहि जगजीवन रांमजी, अनत्त५ कहौ कहां जाइ ॥१३०॥
(५. अनत्त=अन्यत्र)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु में दोनों हाथ जोडकर आपके चरणों में सिर नवाता हूँ । अब मैं आपको छोडकर अन्यत्र कहाँ जाउं !
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कहि जगजीवन रांमजी, प्रेम पाइ करि लीन ।
अपणैं अंग मंहि राखिये, ज्यौं जल मांहैं मीन ॥१३१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु प्रेम पिलाकर मस्त कर दीजिये अपने सानिध्य में ऐसै रखिए जैसे जल में मछली रहती है ।
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कहि जगजीवन रांमजी, तेज पुंज तन मांहि ।
अस्त६ तुचा७ तहँ गालिये, कोई दुख व्यापै नांहि ॥१३२॥
{६. अस्त=अस्थि (=हड्डी)}    {७. तुचा=त्वचा (=चर्म)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु इस देह में तेज पुंज प्रदान करें और इस प्रकार इस देह के अस्थि चर्म ऐसे समेटे कि कोइ दुख न हो कालभय से मुक्त मृत्यु हो ।
(क्रमशः)

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