बुधवार, 17 जनवरी 2024

*पाण्डित्य तथा विवेक-वैराग्य*

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*दादू सब दिखलावैं आपको, नाना भेष बनाइ ।*
*जहँ आपा मेटन, हरि भजन, तिहिं दिशि कोइ न जाइ ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(३)पाण्डित्य तथा विवेक-वैराग्य*
इस तरह बातें करते हुए, श्रीरामकृष्ण जिस मकान में रहते थे उसके सामने आकर गाड़ी खड़ी हुई । दिन के एक बजे का समय होगा । श्रीरामकृष्ण दुमँजलेवाले कमरे में बैठे हुए हैं । बहुत से भक्त सामने बैठे हैं । उनमें श्रीयुत गिरीश घोष, छोटे नरेन्द्र, शरद आदि भी हैं । सब की दृष्टि उस महायोगी सदानन्द महापुरुष की ओर लगी हुई है ।
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डाक्टर को देखकर हँसते हुए श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, ‘आज बहुत अच्छी है तबीयत ।’
धीरे धीरे भक्तों के साथ ईश्वरीय चर्चा होने लगी ।
श्रीरामकृष्ण - सिर्फ पाण्डित्य से क्या लाभ, अगर उसमें विवेक और वैराग्य न हों ? ईश्वर के पादपद्मों की चिन्ता करते हुए मेरी एक ऐसी अवस्था होती है कि कमर से धोती खुल जाती है, पैरों से सिर तक न जाने क्या सरसरता हुआ चढ़ जाता है । तब सब लोग तृण के समान जान पड़ते हैं । उन पण्डितों को जिनमें विवेक, वैराग्य और ईश्वर प्रेम नहीं हैं, मैं घास-फूस की तरह देखता हूँ ।
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"रामनारायण डाक्टर ने मेरे साथ तर्क किया था । एकाएक मुझे वही अवस्था हो गयी । तब मैंने कहा, 'तुम क्या कहते हो ? उन्हें तर्क करके क्या खाक समझोगे ? उनकी सृष्टि भी क्या समझोगे ? तुम्हारी तो यह बड़ी हीन बुद्धि है !' मेरी अवस्था देखकर वह रोने लगा, और मेरे पैर दबाने लगा ।"
डाक्टर - रामनारायण डाक्टर हिन्दू है न ! और फूल-चन्दन भी धारण करता है ! सच्चा हिन्दू है !
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श्रीरामकृष्ण – बंकिम* तुम लोगों के दल का एक पण्डित है । बंकिम के साथ मुलाकात हुई थी । मैंने पूछा, 'आदमी का कर्तव्य क्या है ?' तब उसने कहा, 'आहार, निद्रा और मैथुन ।' इस तरह की बातें सुनकर मुझे घृणा हो गयी । मैंने कहा, 'तुम्हारी ये कैसी बातें हैं ? तुम तो बड़े छिछोड़े हो ! तुम दिन-रात जैसी चिन्ताएँ किया करते हो, वही मुँह से भी निकल रहा है ! मूली खाने से मूली ही की डकार आती है ।' फिर बहुत सी ईश्वरीय बातें हुई ।
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कमरे में संकीर्तन हुआ । मैं नाचा भी । तब उसने कहा, 'महाराज, एक बार हमारे यहाँ भी पधारियेगा ।' मैंने कहा, 'देखो, ईश्वर की इच्छा ।' तब उसने कहा, 'हमारे यहाँ भी भक्त हैं, आप देखियेगा ।' मैंने हँसते हुए कहा, 'किस तरह के भक्त हैं जी ? गोपाल- गोपाल जिन लोगों ने कहा था, वैसे ?’(*बंकिमचन्द्र चटर्जी - बंगाल प्रांत के एक प्रसिद्ध लेखक ।)
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डाक्टर - 'गोपाल-गोपाल' क्या है ?
श्रीरामकृष्ण- (सहास्य) - एक सुनार की दूकान थी । उस दूकान के सब लोग बड़े भक्त दिखते थे - परम वैष्णव । गले में माला, माथे में तिलक, हाथ में सुमिरनी, लोग विश्वास करके उन्हीं की दूकान में आते थे । वे सोचते थे, ये परम भक्त हैं, कभी ठग नहीं सकते ।
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खरीददारों का एक दल जब वहाँ पहुँचता तो सुनता कि कोई कारीगर 'केशव- केशव' कह रहा है, एक दूसरा कुछ देर बाद 'गोपाल- गोपाल' रट रहा है, फिर थोड़ी देर बाद कोई 'हरि-हरि' बोल रहा है, फिर कुछ देर में कोई 'हर-हर' आदि आदि । ईश्वर के इतने नाम एक साथ सुनकर खरीददार सहज ही सोचते थे, इस घराने के सुनार बड़े अच्छे हैं ।
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परन्तु इसका असल मतलब क्या था, जानते हो ? जिसने 'केशव केशव' कहा था, उसका मतलब यह पूछने का था कि ये सब कौन हैं ? जिसने कहा था 'गोपाल-गोपाल', उसका अर्थ यह है कि मैं समझ गया, ये सब गौओं के दल (पाल) हैं । (हास्य) जिसने कहा 'हरि-हरि', उसका अर्थ यह है - अगर ये गौओं के दल हैं तो क्या हम इनका हरण करें ? (हास्य) जिसने कहा ‘हर-हर’, उसने इशारा किया कि हाँ, हरण करो; हाँ, हरण करो; यह तो गौओं का दल ही है । (हास्य)
(क्रमशः)

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