गुरुवार, 1 फ़रवरी 2024

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*मीन मगन मांहीं रहैं, मुदित सरोवर मांहिं ।*
*सुख सागर क्रीड़ा करैं, पूरण परिमित नांहिं ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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गर्भ की जो दशा है, वही मोक्ष की दशा है। गर्भ छोटा-सा आनंद-रूप है मोक्ष का।
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बच्चा मां के साथ एक है, अपने मूल-स्रोत के साथ एक है। मां श्वास लेती है, तो वही बच्चे की श्वास है। मां का खून चलता है, तो वही बच्चे के खून की गति है। मां का हृदय धड़कता है, तो वही बच्चे की धड़कन है। मां अभी मर जाए, तो बच्चा मरेगा। अभी मां का जीवन बच्चे का जीवन है। अभी पृथकता पैदा नहीं हुई। अभी अहंकार नहीं जन्मा। यह मोक्ष का आनंद-रूप है।
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फिर परम संतत्व की अवस्था में भी यही घटना घटती है। तब यह पूरा अस्तित्व मां का गर्भ हो जाता है। इसलिए जहां हम मंदिर में परमात्मा की मूर्ति रखते हैं, उसको कहते हैं गर्भगृह। जिस दिन यह सारा जगत मंदिर की तरह हो जाता है, उस दिन गर्भगृह में तुम पुनः प्रवेश कर जाते हो। फिर तुम्हारा अस्तित्व नहीं रह जाता, फिर सर्व है, तुम नहीं हो।
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इसलिए जिन लोगों ने परमात्मा की कल्पना पुरुष की जगह स्त्री के रूप में की है, उन लोगों ने ज्यादा कुशलता दिखाई है। परमात्मा की धारणा पुरुष के रूप में ठीक नहीं है। क्योंकि वह गर्भ कैसे बनेगा ? इसलिए परमात्मा की धारणा स्त्री के रूप में ज्यादा योग्य है। लेकिन पुरुष के अहंकार के कारण हम आमतौर से परमात्मा को पुरुष बनाए हुए हैं।
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अहंकार को छोड़कर अगर तथ्य को समझने की कोशिश करें, तो परमात्मा स्त्रैण ही होना चाहिए, क्योंकि उसमें जगह चाहिए। मोक्ष, उसमें जगह है, गर्भ की संभावना। हम उसमें वापस लौट सकें। तो काली, जगदंबा की जो धारणा है, वह ज्यादा सत्य के निकट है। पुरुष में तो जगह ही नहीं है, उसमें जाइएगा कहां ? पुरुष में कोई स्थान नहीं है। परमात्मा गर्भ बन जाता है पुनः संत को।
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बच्चा जब पैदा होता है तो पहली अवस्था है अ-रति, नो-सेक्स। इसके विकास को ठीक से समझें, क्योंकि यही वापसी में संत की यात्रा होगी। दूसरा चरण है आत्म-रति, आटो-इरोटिक। बच्चा खुद ही को प्रेम करता है। अपने ही हाथ-पैर से खेलता है। ऐसे ही प्रसन्न होता है अकारण। कोई साथी-संगी नहीं, खुद ही पड़ा-पड़ा मजा लेता है। मुस्कुराता है।
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माताएं समझती हैं शायद पिछले जन्म की याद वगैरह करके प्रसन्न हो रहा है। वह आत्म-रति में लीन है, अभी आटो-इरोटिक है। खुद ही प्रेमी है, खुद ही प्रेम-पात्र है। फिर तीसरा चरण आता है, तब बच्चा होमो-सेक्सुअल हो जाता है। समलिंगीयऱ्यौन पैदा होती है। इसलिए लड़कों की उत्सुकता लड़कों में, लड़कियों की लड़कियों में होती है। एक उम्र है बच्चों की जब लड़के लड़कों के साथ मेल करते हैं, लड़कियां लड़कियों के साथ। लड़के लड़कों के प्रेम में पड़ जाते हैं, लड़कियां लड़कियों के।
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इसलिए बचपन में जैसी दोस्ती बनती है, फिर कभी नहीं बनती। फिर जिंदगीभर वैसी दोस्ती का स्वाद नहीं आता। बच्चे जैसी दोस्ती एक-दूसरे से कर लेते हैं, वह प्रेमियों जैसी दोस्ती है, वह जीवनभर टिकती है। फिर बहुत लोगों से मिलना होगा, अच्छे लोगों से मिलना होगा, संबंध बनेंगे, लेकिन परिचय रहेगा, दोस्ती नहीं हो पाएगी।
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क्योंकि वह जो होमो-सेक्सुअल, समलिंगीय-प्रेम की अवस्था थी, फिर दुबारा नहीं आएगी। अनेक लोग होमो-सेक्सुअल रह जाते हैं, उसका अर्थ है, उनका ठीक विकास नहीं हुआ। फिर बाहर आने के लिए नहीं खुलता। तो उसने विपरीत सेक्स का जगत छोड़ दिया। अब वह पुरुषों के साथ ही रहेगा। उसकी मैत्री होगी वैसी ही, जैसी एक बार बचपन में हुई थी। यह वापस लौट रहा है।
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फिर इससे भी पीछे लौटना है और उस छोटे बच्चे की भांति हो जाना है, जब आप अपने को ही प्रेम करते हैं। पुरुष भी खो गया, स्त्री भी खो गई। संन्यासी अपनी गुहा में बैठा हुआ अपने में ही रत है। ध्यान की यह दशा आत्म-रति है। यह ठीक वैसे ही है, जैसा बच्चा अपने झूले में पड़ा है और आनंदित हो रहा है। किसी दूसरे की जरूरत नहीं है आनंद के लिए। उसका खुद का होना ही काफी आनंद है। ध्यान की यह अवस्था है।
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फिर इससे भी पीछे लौटना है–अपना भी खयाल न रह जाए। वह गर्भ में वापस लौट गया। इस अवस्था का नाम समाधि है। तब बच्चा, जैसे पूरा अस्तित्व गर्भ हो गया और अब उसे अपना बोध ही न रहा, वह अबोध हो गया। इस सारे अस्तित्व के साथ एक हो गया। यह वर्तुल पूरा हुआ। फिर अ-रति पैदा हुई। इस अंतिम अवस्था को मैं ब्रह्मचर्य कहता हूं।
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और अगर आप सीधे ही चलते गए और चौथे चरण के बाद ब्रह्मचारी हो गए पांचवें चरण में, तो वह ब्रह्मचर्य दमन होगा। और विकृत होगा और उसमें सौंदर्य नहीं हो सकता। उसमें वह महिमा प्रगट नहीं होगी, जो एक बच्चे में प्रगट होगी मां के गर्भ में वापस लौटकर।
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अ-रति, फिर आत्म-रति, फिर स्वलिंगीय-रति, फिर पर-रति, और फिर वापस है यात्रा। और जिस दिन आपका वर्तुल पूरा होगा, उस दिन परम शांति आप पर प्रगट होगी। आशीर्वाद सब तरफ से बरसने लगेंगे। यह आदमी घर आ गया। झेन फकीर कहते हैं, कमिंग बैक टू होम। जहां से चला था, वहीं वापस आ गया। मूल-स्रोत को उपलब्ध हो गया।
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प्रकृति से लड़ेंगे, तो भी प्राकृतिक; समर्पण करेंगे, तो भी प्राकृतिक। छोड़ देंगे अपने को, बिलकुल भूल जाएंगे, न संघर्ष, न समर्पण, तो भी प्राकृतिक है। सभी कुछ प्राकृतिक है, क्योंकि अप्राकृतिक हो ही कैसे सकता है? इसलिए सवाल प्रकृति और अप्रकृति के बीच चुनने का नहीं है, सवाल सुख, दुख और आनंद के बीच चुनने का है। तीनों द्वार खुले हैं। जिस तरफ भी जाना हो, होशपूर्वक जाना।
--नही राम बिन ठाँव #13
ओशो,,

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