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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #३९१)*
*राग भैरूं ॥२४॥**(गायन समय प्रातः काल)*
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*३९१. समर्थ लीला । तिलवाड़ा*
*ऐसो राजा सेऊँ ताहि, और अनेक सब लागे जाहि ॥टेक॥*
*तीन लोक ग्रह धरे रचाइ, चंद सूर दोऊ दीपक लाइ ।*
*पवन बुहारे गृह आँगणां, छप्पन कोटि जल जाके घरां ॥१॥*
*राते सेवा शंकर देव, ब्रह्म कुलाल न जानै भेव ।*
*कीरति करणा चारों वेद, नेति नेति न विजाणै भेद ॥२॥*
*सकल देवपति सेवा करैं, मुनि अनेक एक चित्त धरैं ।*
*चित्र विचित्र लिखैं दरबार, धर्मराइ ठाढ़े गुण सार ॥३॥*
*रिधि सिधि दासी आगे रहैं, चार पदारथ जी जी कहैं ।*
*सकल सिद्ध रहैं ल्यौ लाइ, सब परिपूरण ऐसो राइ ॥४॥*
*खलक खजीना भरे भंडार, ता घर बरतै सब संसार ।*
*पूरि दीवान सहज सब दे, सदा निरंजन ऐसो है ॥५॥*
*नारद गावें गुण गोविन्द, करैं शारदा सब ही छंद ।*
*नटवर नाचै कला अनेक, आपन देखै चरित अलेख ॥६॥*
*सकल साध बाजैं नीशान, जै जैकार न मेटै आन ।*
*मालिनी पुहुप अठारह भार, आपण दाता सिरजनहार ॥७॥*
*ऐसो राजा सोई आहि, चौदह भुवन में रह्यो समाहि ।*
*दादू ताकी सेवा करै, जिन यहु रचिले अधर धरै ॥८॥*
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जिस राजारूप राम की अनेक राजा लोग सेवा करते हैं । मैं उसी राजाराम के समीप ही रहता हूँ । जिसने त्रिलोकी को बनाया है, तथा त्रिलोकी में ग्रह नक्षत्र आदि के रहने के लिये स्थान बनाये । इस त्रिलोकी को प्रकाशित करने के लिये प्रकाशस्वरूप सूर्य चन्द्र्रुपी दीपक बनाये । वायु जिसके भय से सतत बहती हुई उसके घर के आंगन को बुहारकर स्वच्छ रखती है । छप्पन करोड़ बादल जिसकी आज्ञा से सर्वत्र जल वर्षाते हैं ।
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शंकर आदि देवता भी उसी की उपासना करते रहते हैं । ब्रह्मा भी उसकी आज्ञा का पालन करता हुआ ब्रह्माण्ड की रचना करके उसकी सेवा कर रहा है । फिर भी उसके स्वरूप को नहीं जान सका । चारों वेद भी उसी का यशोगान करते हुए उसको विशेषरूप से न जानने के कारण नेति नेति कह कर चुप हो गये ।
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देवों के राजा इन्द्र भी उसकी उपासना करते हैं । अनेक मुनिवर उसका ध्यान करते हुए समाधिस्थ हो गए । जिस राजा राम की सभा में चित्रगुप्त प्राणियों के विचित्र-विचित्र कर्मफलों को अपनी लेखिनी से लिखते रहते हैं । धर्मराज भी जिसकी स्तुति करता है ।
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ऋद्धि सिद्धियाँ भी जिसके आगे हाथ जोड़ कर स्तुति करती रहती हैं । धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ये चारों पुरुषार्थ भी जिसकी सेवा में लगे रहते हैं । सिद्ध महात्मा भी अपने अन्तःकरण से जिसका ध्यान करते रहते हैं । ऐसे परब्रह्म परमात्मा के भण्डार धन-धान्यादिकों से सदा भरे ही रहते, कभी भी रिक्त नहीं होते ।
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वही परमात्मा अपने भण्डार से सभी प्राणियों को धन-धान्य देता रहता है । वह प्रभु भक्तों के मनोरथों को तो अनायास ही पूर्ण कर देता है । सृष्टि के कर्तृत्व में वह माया से लिप्त नहीं होता । किन्तु मायारहित निरंजन ही रहता है ।
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नारद भी सदा उसी का गुणगान गाया करते हैं । शारदा भी उसी प्रभु के गुणों को छन्दों द्वारा गाती रहती है । इस तरह नटवर प्रभु अपनी अनेक कलाओं से नाचते रहते हैं और वह अपनी लीला को स्वयं ही जानते हैं ।
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सब संत भी उसी की ही स्तुति करते हुए उसकी जय जयकार करते हैं कि हे प्रभो ! तुम्हारी जय हो, जय हो । वनस्पतियों का जो अठारह भार है वह भी वनस्पतियों की माला बनाकर मानो मालाकार की तरह माला पहनता हुआ उसकी सेवा कर रहा है । वह ही सर्वसमर्थ प्रभु सब प्राणियों को प्रारब्ध कर्म के अनुसार सुख दुःखरूपी कर्म फलों को देते रहते हैं । जो चारों भुवनों में व्याप्त हैं । वह ही मेरा निरंजन ब्रह्म उपास्य है । जिसने इस संसार को निराधार ही बना रखा हैं । उसकी मैं सेवा करता हूँ ।
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भागवत में लिखा है – प्रह्लाद जी कह रहे हैं कि – ब्रह्मा आदि देवता ऋषि मुनि और सिद्ध पुरुषों की बुद्धि निरन्तर सत्वगुण में ही स्थित रहती हैं । फिर भी वे अपनी धाराप्रवाह स्तुति करते हुए अपने विविध गुणों से आपको संतुष्ट नहीं कर सके । फिर मैं तो घोर असुर जाति में उत्पन्न हुआ हूँ । क्या आप मेरे से संतुष्ट हो सकते हैं ?
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आप सत्वगुण के आश्रय हैं । ये ब्रह्माआदि सभी देवता आपके आज्ञाकारी भक्त हैं – और हमारी तरह आप से द्वेष नहीं करते । हे प्रभो ! आप सुन्दर सुन्दर अवतार धारण करके इस जगत् के कल्याण एवं अभ्युदय के लिये तथा उसे आत्मानन्द की प्राप्ति कराने के लिये अनेकों प्रकार की लीला करते हैं ।
(क्रमशः)

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