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*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४०. करुणां कौ अंग ५/७*
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कहि जगजीवन दीनता, करुणां करै पुकार ।
तौ हरि रीझै साध सब, एही भगति निज सार ॥५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जब दैन्य भाव व करुणा से पुकार हो तो परमात्मा व साधु जन सभी प्रसन्न होते हैं व दैनय व प्रेम भाव ही भक्ति का सार रुप है ।
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जगजीवन करुणां करौ, कोटि बार कर जोड़ि ।
तुम गुर तुम धणीं, नीरबाहौ जो बोडि१ ॥६॥
(१. बोडि=अन्त तक)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि आपसे करोड़ों बार हाथ जोड़ कर वन्दन है कि आप ही गुरु हो मालिक हो आप अंत तक निबाहना प्रभु ।
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हूँ२ चरणन की रेत३ का, तुम मेरे सिरताज ।
कहि जगजीवन रांमजी, जे घरि आवौ आज ॥७॥
(२. हूँ=मैं) (३. रेत=धूल)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु मैं तो धूल का एक कण हूँ और आप तो मेरे सरताज हो आज आप मेरे ह्रदय रुपी घर में पधारें ।
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इति करुणां कौ अंग संपूर्ण ॥४०॥
(क्रमशः)

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