बुधवार, 21 फ़रवरी 2024

शब्दस्कन्ध ~ पद #३९९

 🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
*https://www.facebook.com/DADUVANI*
*भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।*
*साभार : महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।*
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #३९९)*
*राग भैरूं ॥२४॥**(गायन समय प्रातः काल)*
===========
*३९९. निष्काम साध । उदीक्षण ताल*
*ऐसा अवधू राम पियारा, प्राण पिंड तैं रहै नियारा ॥टेक॥*
*जब लग काया तब लग माया, रहै निरन्तर अवधू राया ॥१॥*
*अठ सिधि भाई नो निधि आई, निकट न जाई राम दुहाई ॥२॥*
*अमर अभय पद बैकुंठ बासा, छाया माया रहै उदासा ॥३॥*
*सांई सेवक सब दिखलावै, दादू दूजा दृष्टि न आवै ॥४॥*
अवधूत महात्मा शरीराध्यास से रहित तथा भगवान् की भक्ति वाला होता हैं । क्योंकि यह शरीर ही मोह का घर हैं । अतः जो शरीर के अध्यास को त्यागकर निरन्तर अपने मन की वृत्ति को आत्मस्वरूप ब्रह्म में ही लगाकर उसी में अनुरक्त रहता हैं वह ही अवधूत कहलाता हैं ।
.
अवधूत महात्मा अष्टसिद्धि नवनिधियों को भी नहीं चाहता क्योंकि वे मोक्ष में बाधक बन जाती हैं । प्रत्युत उनकी निन्दा करते हुए उनसे दूर ही रहते हैं और देवलोक तथा वैकुण्ठ की भी इच्छा नहीं करता । प्रत्युत उनको मायिक समझकर उनसे उपराम ही रहता हैं । यह संसार माया की ही छाया स्वरूप ही हैं ।
.
ऐसा जानकर संसार से भी उपराम होकर अमर अभयपद स्वरूप ब्रह्म में ही निवास करता रहता हैं । यद्यपि भक्त की परीक्षा के लिये भगवान् भक्त को सब कुछ भोग प्रदान करते हैं परन्तु भक्त उनको दुःख रूप तथा भक्ति में बाधक जान कर उनकी तरफ दृष्टि भी नहीं डालता । वह तो परमात्मा के अलावा कुछ भी नहीं चाहता ।
.
विवेकचूड़ामणि में कहा है कि –
जो शरीर पोषण में लगा रहकर आत्मतत्त्व को जानना चाहता हैं, वह मानो काष्ठ बुद्धि से ग्राह को पकड़ कर नदी पार करना चाहता हैं । शरीरादिकों में मोह रखना ही मुमुक्षु की बड़ी भारी मृत्यु हैं । जिसने मोह को जीता नहीं वह मुक्ति का अधिकारी नहीं होता । देह, स्त्री, पुत्रादिकों में मोहरूप महामृत्यु को छोड़कर ही मुनिजन भगवान् के उस परम पद को प्राप्त होते हैं ।
.
भागवत में कहा है कि –
यह मनुष्य शरीर मुक्ति का खुला हुआ द्वार हैं । जो इसे पाकर भी घर-गृहस्थी में फंसा रहता है । वह बहुत ऊंचा चढ़कर मानों गिर रहा है । शास्त्रों में इसको आरूढच्युत कहते हैं ।
.
हे राजन् ! जैसे बिना इच्छा के ही प्रयास किये बिना ही पूर्व कर्मानुसार दुःख प्राप्त होता हैं वैसे ही स्वर्ग नरक में जीव कहीं भी रहे उन्हें इन्द्रिय सम्बन्धी सुख दुःख प्राप्त होते ही रहते हैं । अतः सुख-दुःख का रहस्य जानने वाले बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि इनके लिये इच्छा या किसी प्रकार की चेष्टा न करे ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें