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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #३९६)*
*राग भैरूं ॥२४॥**(गायन समय प्रातः काल)*
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*३९६. मदनताल*
*को स्वामी को शेख कहै,*
*इस दुनियां का मर्म न कोई लहै ॥टेक॥*
*कोई राम कोई अलह सुनावै,*
*पुनि अलह राम का भेद न पावै ॥१॥*
*कोई हिन्दू कोई तुर्क कर मानै,*
*पुनि हिन्दू तुर्क की खबर न जानै ॥२॥*
*यहु सब करणी दोनों वेद,*
*समझ परी तब पाया भेद ॥३॥*
*दादू देखै आत्म एक,*
*कहबा सुनबा अनन्त अनेक ॥४॥*
हिन्दू जाति में होने वाले साधु को हिन्दू लोग स्वामी शब्द से उनके साथ व्यवहार करते हैं । यवनों में जो सांई बनता हैं उसको शेख नाम से पुकारते हैं । दोनों ही जाति के लोग नामभेद में बंधे हुए भटक रहे हैं । मानव जन्म का जो फल भगवान् को प्राप्त करना है उसको तो कोई नहीं जानता और अपने नर जन्म को व्यर्थ ही खो रहे हैं ।
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कोई रामनाम को सुनाते हैं कोई अल्लाह के नाम को, परन्तु नाम सुनाने और सुनने का जो फल हैं, उसको दोनों ही नहीं जानते । किन्तु भ्रमवशात् परस्पर में एक दूसरे से द्वेष करते हैं । कितने ही अपने को हिन्दू बतलाते हैं तो कितने ही अपने को मुसलमान कहते हैं । किन्तु हिन्दुत्व, यवनत्व के रहस्य को कोई नहीं जानता ।
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पूर्वोक्त नाम भेद से व्यवहार भेद और कर्मभेद भी हैं जो अविवेकमूलक हैं । विवेक होने पर तो कोई भेद नजर ही नहीं आता । मेरे को तो जब से यथार्थ ज्ञान हो गया तब से मेरा भेदमूलक व्यवहार भी नष्ट हो गया और सभी में, मैं एक अद्वितीय ब्रह्म को ही देखता हूँ ।
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आत्मोपनिषद् में कहा है कि – ब्रह्मज्ञानी विद्वान काम्य कर्मों को त्याग कर ममता और अहंकार रहित निष्काम भाव से अकेला ही सुख से विचरता है । वह ब्रहमज्ञानी अपने आप से संतुष्ट रहता है और स्वयं सर्वरूप से स्थित हैं । निर्धन होने पर भी सदा प्रसन्न रहता हुआ बादशाह हैं और सहायक न होने पर भी महाबलवान् हैं ।
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कुछ न खाता हुआ भी वह तत्त्ववेत्ता नित्य तृप्त हैं । शरीर आदि उपाधियों से असम प्रतीत होता हुआ भी हमेशा समदृष्टि वाला हैं । कर्ता होते हुए भी कुछ नहीं करता । पाप पुण्य के फल जो सुख-दुख हैं, उनको भोगता हुआ भी अभोक्ता हैं, शरीर वाला होने पर भी वह आत्मज्ञानी शरीर रहित है ।
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परिछिन्न होने पर भी सर्वव्यापक हैं । सदा शरीररहित इस ब्रह्मज्ञानी को कहीं पर भी सुख दुःख स्पर्श भी नहीं करते । पाप पुण्य भी नहीं छू सकता । जिस प्रकार अँधेरे से ग्रस्त न होने पर भी मनुष्य को सूर्य अँधेरे से ग्रस्त सा मालूम होता हैं ।
(क्रमशः)

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