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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*३९. बिनती कौ अंग १५३/१५६*
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जगजीवन कहै रांमजी, देह के भाई बंधि ।
अंग मांहि सारी२ समावै, सो हम लही न संधि३ ॥१५३॥
(२. सारी=सब कुछ) (३. संधि=वास्तविक आय)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु सब इस शरीर के ही संबधी है हमारा सारा व्यापार देह से ही है किन्तु हम सच्ची कमाई जो प्रभु नाम है वह नहीं ले सके ।
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जगजीवन कहै रांमजी, पंच तत्त्व गुन तीन ।
अनेक बरष अंग मंहि मिलै, सनमुख राखौ लीन ॥१५४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु जी इस पंचभौतिक शरीर में सत, रज, व तम तीन गुण व्यापते हैं । हमारे अनेक जन्म होकर खत्म होगये अब तो आप अपना सानिध्य दीजिये ।
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ए अपराध छिमा करौ, मनसा सुक्खिम४ होइ ।
कहि जगजीवन रांमजी, जीव की सकति न कोइ ॥१५५॥
(४. सुक्खिम=सूक्ष्म रूप से आ कर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु हमारे अपराध क्षमा करो हमारी इच्छाओं को सीमित करो । यह सब हम करने की सामर्थ्य इस जीव में नहीं है ।
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ए अपराध छिमा करौ, मनसा सबद सरीर ।
कहि जगजीवन रामजी, प्यावौ अम्रित नीर ॥१५६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु आप हमारे अपराध क्षमा कर हमारी देह व मन सदा स्मरण करें ऐसा अमृत पान करायें प्रभु ।
(क्रमशः)

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