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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू बाहर का सब देखिये, भीतर लख्या न जाइ ।*
*बाहर दिखावा लोक का, भीतर राम दिखाइ ॥*
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*भेष रहित साध कौ अंग ॥*
ऊपर तैं सुध बुध सा दीसै, साधू जन संसारि ।
बषनां बारै क्यूँ नहीं, माहिं मका की ज्वारि ॥१॥
संसारि = संसार में, साधुओं जैसा ऊपरी भेष न पहनने वाला किन्तु परमात्म-चिंतन-निरत साधु ऊपर = बाहर से तो एकदम सुधबुध – साधारण सा मानव मात्र लगता है क्योंकि उसका आश्रम तथा भेष गृहस्थ जैसा होता है किन्तु अंदर से वह उसी प्रक्रार परिपूर्ण होता है जैसे मक्का का ज्वारि = दाना भीतर ही भीतर परिपक्व होकर खाने योग्य हो जाता है । साधु परिपक्व हुवा तब कहा जाता है जब उसे स्वात्मतत्त्व का साक्षात्कार=बोध हो गया है ॥१॥
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*साध पाराष कौ अंग ॥*
कण मोटौ साहू सिरौ, चेडेरू भै नाहिं ।
साध मका की ज्वार ज्यूँ, बषनां निपना माहिं ॥२॥
मक्का का दाना मोटा होता है । उसके सिट्टे का शिरा, साहू = सीधा होता है इसके कारण चेडेरू = पक्षियों द्वारा उसको खाये जाने का बिलकुल भी भय नहीं होता । रामभजन-निरत साधु मक्का के कण जैसा है जो मक्का की भांति अंदर ही अंदर परिपक्व (मक्का का दाना ऊपर से ढका रहता है) हो जाता है ।
विघ्नों को पता ही नहीं चलता कि इसकी साधना में विघ्न भी करने हैं । “इन्द्रिन्ह द्वारि झरोखा नाना । तहँ-तहँ सुर बैठे करि थाना ॥ आवत देखैं विषय बयारी । ते हठि देहिं कपाट उघारी ॥” वस्तुतः ऐसे साधुओं के पास ज्ञान, भक्ति, वैराग्य रूपी कवच होता है जो विषय-वासना रूपी विघ्नों को पास में फटकने ही नहीं देता ॥२॥
(क्रमशः)
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