शनिवार, 3 फ़रवरी 2024

शब्दस्कन्ध ~ पद #३९२

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #३९२)*
*राग भैरूं ॥२४॥**(गायन समय प्रातः काल)*
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*३९२. जीवित मृतक । एकताल*

*जब यहु मैं मैं मेरी जाइ, तब देखत वेग मिलै राम राइ ॥टेक॥*
*मैं मैं मेरी तब लग दूर, मैं मैं मेटि मिलै भरपूर ॥१॥*
*मैं मैं मेरी तब लग नांहि, मैं मैं मेटि मिलै मन माँहि ॥२॥*
*मैं मैं मेरी न पावै कोइ, मैं मैं मेटि मिलै जन सोइ ॥३॥*
*दादू मैं मैं मेरी मेटि, तब तूँ जान राम सौं भेटि ॥४॥*

जीवित अवस्था में ही जिसका अहंकार तथा मिथ्याभूत तव - ममभाव नष्ट हो गये, वह जीता हुआ ही ब्रह्मस्वरूप श्रीराम को प्राप्त कर लेता है अतः जब तक जिसके हृदय में अहंकार तथा तव मम भाव जागते रहते हैं उसके लिये भगवान् की प्राप्ति बहुत दूर है, ऐसा समझो । 
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अतः जो शीघ्र ही कर्तृत्व भोक्तृत्व रूप अहंकार को तेरे मेरे भाव को त्याग देता है, उसको विश्व में सर्वत्र परिपूर्ण ब्रह्म भासने लगता है । यदि जीव का अहंभाव गल जाय तो अपने मन में ही ब्रह्म को जान लेता है । 
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अहंकार और ममता के रहते हुए तो कोई भी परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता है । जिसकी अहंता, ममता नष्ट हो गई वह ही भक्त कहलाता है । हे साधक ! जब तेरा अहंकार नष्ट हो जायेगा, तब ही तू राम को जानेगा । अन्यथा नहीं । 
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अष्टावक्रगीता में –
आत्मज्ञान पर्यन्त ही संसार है, अर्थात् आत्मज्ञान पर्यन्त संसार में माया वश जीव को, चेतन ही विवर्तरूप होकर भास रहा है । ऐसा निश्चयवाले विद्वान का शरीरादिकों में अहंकार नहीं रहता, वह ममता और कामनाओं से रहित होकर विचरता है । 
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महोपनिषद् में –
अहंकार से ही बड़ी-बड़ी आपदायें आती हैं और बड़ी-बड़ी व्याधियाँ भी अहंकार से ही आती हैं । अहंकार ही इच्छा का कारण है । अधिक क्या कहें, अहंकार से बढ़कर तो कोई शत्रु है ही नहीं । 
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योगवासिष्ठ में –
जैसे चन्द्रमा को राहु निगल जाता है । कमलों को हिम या बादलों की वर्षा नष्ट कर देती है । उसी प्रकार अहंकार शान्ति, क्षमा, दया तथा प्राणिमात्र में समभाव को नष्ट कर देती है । ऐसे अहंकार को मैं त्याग देता हूँ । 
(क्रमशः)

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