शनिवार, 3 फ़रवरी 2024

बषनां हिरदै राम न धार्या

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू पंच आभूषण पीव कर, सोलह सब ही ठांव ।*
*सुन्दरी यहु श्रृंगार करि, ले ले पीव का नांव ॥*
*यहु व्रत सुन्दरी ले रहै, तो सदा सुहागिनी होइ ।*
*दादू भावै पीव कौं, ता सम और न कोइ ॥*
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*धरम रहित भेष कौ अंग ॥*
जलपोसौं का आभरण, पहरि किया टुक कोड ।
बषनां बांदी क्यूँ करै, पतिबरता की होड ॥१॥
बाना पहनकर बाने के धर्म = परमात्म-चिंतन को न निभाने=करने वालों के सम्बन्ध में विचार करते हुए कहते हैं, जिस प्रकार जलपोस = कौड़ी, सीपी आदि समुद्र में उत्पन्न अल्पमूल्य के पदार्थों से बने गहने टुक = कुछ समय तो सुहावने लगते हैं किन्तु इनकी उम्र अधिक न होने से ये स्थायी नहीं रहते ।
अतः पहनने वाला कुछ समय तो इनको पहनकर कोड = आनंदित होता है किन्तु इनसे वैसा स्थायी प्रेम नहीं रख पाता जितना स्वर्णादि के आभूषणों से रख पाता है । इसी प्रकार, जैसे बांदी = दासी, वेश्या स्त्री पतिव्रता स्त्री की समता नहीं कर सकती वैसे ही मात्र भेषधारी आत्मसाक्षात्कारी की तुल्यता नहीं कर सकता ॥१॥
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माला तिल्क छापा बहु दीया । जो मन मान्या सोई कीया ॥
बषनां हिरदै राम न धार्या । तौ जाणि दीवाली बलद सिंगार्या ॥२॥
भेषधारी के सम्बन्ध में बताते हुए कहते हैं, भेषधारी गले में, हाथों में मालाएँ पहनता है; ललाट, भुजा, पेट आदि पर अनेकों तिलक लगाता है, भुजाओं पर द्वारकाधीश की तप्त छापें लगवाता है । इतना ही नहीं, अपने आपको साधु सिद्ध करने के लिये मन-मतानुसार नाना कर्म करता है किन्तु हृदय में राम नाम को धारण नहीं करता है ।
वस्तुतः ऐसे भेषधारियों का भेषधारण करना ठीक वैसे ही व्यर्थ है जैसे दीपावली के अवसर पर तो बैलों को मेंहदी, झूल आदि के द्वारा श्रृंगारित किया जाए और अगले दिन ही खेती में काम करने को जोत दिया जाए ॥२॥
(क्रमशः)

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