सोमवार, 12 फ़रवरी 2024

ज्ञान-विज्ञान विचार, ब्रह्मदर्शन

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*दादू मेरा एक मुख, कीर्ति अनन्त अपार ।*
*गुण केते परिमित नहीं, रहे विचार विचार ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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(३)ज्ञान-विज्ञान विचार । ब्रह्मदर्शन ।
श्रीरामकृष्ण को अब बाहरी संसार का ज्ञान हो गया है । गाना भी समाप्त हो गया । पण्डित, मूर्ख तथा आबाल-वृद्ध वनिता सभी के मन को मुग्ध करनेवाली उनकी बातचीत फिर होने लगी । सभी मनुष्य स्तब्ध हैं । सब लोग उस मुख की ओर एकटक देख रहे हैं । अब वह कठिन पीड़ा कहाँ है ? मुख अभी भी खिले हुए अरविन्द के समान प्रफुल्ल है - मुख से मानो ईश्वरी ज्योति निकल रही है ।
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श्रीरामकृष्ण डाक्टर से कहने लगे - "लज्जा छोड़ो, ईश्वर का नाम लोगे, इसमें लज्जा क्या है ? लज्जा, घृणा और भय, इन तीनों के रहते ईश्वर नहीं मिलते । ‘मैं इतना बड़ा आदमी, और ईश्वर नाम लेकर नाचूँ ? यह बात जब बड़े बड़े आदमी सुनेंगे, तब मुझे क्या कहेंगे ? अगर वे कहें, अजी, डाक्टर तो अब ईश्वर का नाम लेकर नाचने लगा, तो यह मेरे लिए बड़ी ही लज्जा की बात होगी ।' इन सब भावों को छोड़ो ।"
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डाक्टर - मैं उस तरह का आदमी नहीं हूँ । लोग क्या कहेंगे, इसकी मुझे रत्ती भर परवाह नहीं ।
श्रीरामकृष्ण - इतना तो तुममें खूब है । (सब हँसते हैं)
"देखो, ज्ञान और अज्ञान के पार हो जाओ, तब उन्हें समझोगे । बहुत कुछ जानने का नाम है अज्ञान । पाण्डित्य का अहंकार भी अज्ञान है । एक ईश्वर ही सर्वभूतों में हैं, इस निश्चयात्मिका बुद्धि का नाम है ज्ञान । उन्हें विशेष रूप से जानने का नाम है विज्ञान ।
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पैर में काँटा गड़ गया है, उसको निकालने के लिए एक दूसरे काँटे की जरूरत होती है । काँटे को काँटे से निकालकर फिर दोनों काँटे फेंक दिये जाते हैं । पहले अज्ञानरूपी काँटे को दूर करने के लिए ज्ञानरूपी काँटे को लाना होता है । इसके बाद ज्ञान और अज्ञान दोनों को ही फेंक देना पड़ता है; क्योंकि वे ज्ञान और अज्ञान से परे हैं ।
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लक्ष्मण ने कहा था, 'राम, यह कैसा आश्चर्य है ! इतने बड़े ज्ञानी वशिष्ठ देव भी पुत्रों के शोक से विव्हल होकर रो रहे थे !' राम ने कहा, 'भाई, जिसे ज्ञान है, उसे अज्ञान भी है; जिसे एक वस्तु का ज्ञान है, उसे अनेक वस्तुओं का भी ज्ञान है । जिसे उजाले का अनुभव है; उसे अँधेरे का भी है । ब्रह्म ज्ञान तथा अज्ञान से परे है; पाप और पुण्य, शुचिता और अशुचिता से परे है ।’"
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यह कहकर श्रीरामकृष्ण रामप्रसाद के गाने की आवृत्ति करके कहने लगे –
"आ मन ! चल टहलने चलें । काली-कल्पतरु के नीचे तुझे चारों फल पड़े मिल जायेंगे .... ।”
श्याम बसु - दोनों काँटों के फेंक देने पर फिर क्या रह जायेगा ?
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श्रीरामकृष्ण – नित्यशुद्धबोधरूपम् । यह तुम्हें भला कैसे समझाऊँ ? अगर कोई पूछे कि तुमने जो भी खाया वह कैसा था, तो उसे किस तरह समझाया जाय ? अधिक से अधिक इतना ही कह सकते हो कि घी जैसा होता है, बस वैसा ही था ।
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"एक स्त्री से उसकी एक सखी ने पूछा था, ‘क्यों सखि, तेरा तो पति आया है, भला बता तो सही, पति के आने पर कैसा आनन्द मिलता है ?’ उस स्त्री ने कहा, 'यह तो तू तभी समझेगी जब तेरे भी स्वामी होगा; इस समय मैं तुझे भला कैसे समझाऊँ !’ पुराण में है, भगवती जब हिमालय के यहाँ पैदा हुई तब माता ने गिरिराज को अनेक रूपों से दर्शन दिया ।
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गिरीन्द्र ने सब रूपों के दर्शन करके भगवती से कहा, 'बेटी, वेद में जिस ब्रह्म की बात है, अब मुझे उस ब्रह्म के दर्शन हों ।' तब भगवती ने कहा, 'पिताजी, अगर ब्रह्म के दर्शन करना चाहते हो तो साधुओं का संग करो ।' ब्रह्म क्या वस्तु है यह मुख से नहीं कहा जा सकता । एक ने कहा था, 'सब जूठा हो गया है, पर ब्रह्म जूठा नहीं हुआ ।'
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इसका अर्थ यह है कि वेदों, पुराणों, तन्त्रों और शास्त्रों का मुख से उच्चारण करने के कारण वे सब जूठे हो गये हैं ऐसा कहा जा सकता है, परन्तु ब्रह्म क्या वस्तु है, यह कोई अभी तक मुख से नहीं कह सका । इसीलिए ब्रह्म अभी तक झूठे नहीं हुए । सच्चिदानन्द के साथ क्रीड़ा और रमण कितने आनन्दपूर्ण हैं, यह मुख से नहीं कहा जा सकता । जिसे यह सौभाग्य मिला है, वही जानता है ।"
(क्रमशः)

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